मंगलवार, 29 नवंबर 2022

सहमति

 ट्रेन नदी नाले पार करती चली जा रही थी। जब भी किसी नदी नाले के पुल को पार करती तो पहिए की गड़गड़ाहट से पूरा तन मन रोमांच से भर जाता था। अभी थोडी देर पहले डिब्बे मे एक अलग सा उतावलापन था। पूरा परिवार साथ बच्चों के साथ ही बडे भी बहुत उत्साहित थे।


परिवार की सबसे बड़ी लडकी रागिनी के लिए लड़का देखने जा रहे थे। यात्रा की थकान और सुबह जल्दी जागने के परवाह मे जल्दी जल्दी सभी सो गये। मां और पिता के अतिरिक्त उस कुमुदिनी की आंखो मे भी नींद नही थी जिसके नव पल्लवित जीवन का मधुमास आने वाला था। यौवन की धरा पर पांव रखते मानव का मन इक अलग ही ऊंचाई पर उड़ता हैं। मन मे रह रहकर स्वप्न के तार झंकृत होते तो नवयौवना अपनी आंखो को बंद कर उस शहद को चुप घुलने देती, बारबार ममेरी बहन स्मिता के शब्द याद आते।


विचित्र आकर्षण है विवेक मे जितना सुन्दर है उतना ही सौम्य और वाकपटू ऐसा की अंजाने को भी पल भर मे अपने रंग मे रंग ले। यह सब याद कर वह लाजवंती हल्की सी मुस्कराहट के साथ शर्मा जाती थी। ईश्वर मानव जीवन मे कितने अलग अलग रंग भरता है। यौवन यात्रा मे कितने आकर्षक प्रस्तावों से सामना हुआ था पर किसी को हां नही कहा शायद इसी सुन्दर विकल्प हेतु विधाता ने मेरा हृदय किसी से जोड़ा ही नही। इन माधुर्य विचारों मे मग्न युवती को भान भी न रहा कब नींद आ गई सुबह पापा हडबडी मे सबको जगा रहे थे। अगला स्टेशन 10मिनट मे आने वाला था। हालांकि गाड़ी 15मिनट तक रूकती थी पर इतने लोगो का सुरक्षित उतारना भी चुनौती थी। प्रभु कृपा से सब कुछ बहुत सहजता से हो गया। नियत समय पर सभी तैयार होकर होटल पहुंच गये हल्के फुल्के नाश्ते का दौर साथ साथ बातें लगातार चलती जा रही है। शीघ्र ही दोनो पक्ष परस्पर घुल मिल गये और वह समय आ गया जब वर वधू को आपस मे बात करने हेतु समय दिया गया। हृदय दुगुनी गति से धड़क रहा था। होटल के लान मे किनारे एक बेंच पर दोनो बैठे थे। बातें शुरू हुई। पहले संभल कर धीरे धीरे पर फिर जैसे भावनाएं अब बुद्धि के वश से बाहर हो रही थीं पर मर्यादा का विचार करते हुए एक दूसरे को पहचानना भी आवश्यक था। रागिनी और विवेक सहमति के काफी करीब थे की सहसा अश्विन ने रागिनी को सजग करते हुए पूछा, मेरा एक अतीत है जिसका ज़िक्र किये बिना मैं आगे नही बढना चाहता। रागिनी हल्की सी सतर्क हो गई धीमे से बोली बताइये।



मेरे जीवन का एक अतीत है हालाँकि उसकी कोई प्रासंगिकता शेष नही है फिर भी।

रागिनी पूरी तरह चौंक गई थी।

विवेक सहजता से कहता चला गया, चेहरे पर दर्द के भाव, विछोह की पीड़ा सब परिलक्षित थे।

रागिनी दुविधा मे थी, यह क्या! हे ईश्वर मेरे हिस्से मे यह विचित्र अधूरापन क्यों। अभी वो ऐसा सोच ही रही थी की विवेक ने कहा "परन्तु अब यह मेरे लिए मात्र एक बुरे स्वप्न की तरह है। जिन्हे मै अपनी असफलताओं की भांति कभी याद नही रखता"।

हां आज तुम्हे बताना जरूरी समझा मै अपनी होने वाली अर्धांगिनी से कोई रहस्य नही रखना चाहता था।

यह तो जितना सहज है उतना ही निर्मल भी धीरे धीरे रागिनी विचारमग्न थी उसका संशय छंटता जा रहा था। निर्णय की घड़ी उसके नजदीक आ गई थी विकल्प की स्वीकार्यता पर उसका निर्णय और ढृढ़ होता जा रहा था।

विवेक ने अपनी बाते समाप्त की और फिर दोनो ने आपसी सहमति से वहां से चलना प्रारंभ किया।

मुझे अतीत के उतार चढाव से सहानुभूति तो है पर कोई शिकायत नहीं,बेंच से उठ कर अपनी साडी का पल्लू संभालती रागिनी ने कहा था।

मारा सरोकार वर्तमान और भविष्य से हैं, मुझे उसका आश्वासन चाहिए और साथ भी।

सहमति के इस अद्भुत प्रस्तुतीकरण से दोनो ही आह्लादित थे

#Ssps96

:-शशिवेन्द्र "शशि"


बुधवार, 23 नवंबर 2022

लालसर:---स्वाद की लालसा

जीतन सिंह फौज से रिटायर हुए तो शहर मे बेटे बहू के पास फ्लैट मे रहने लगे। पाश सोसाइटी का फ्लैट आधुनिक सुविधापूर्ण पर जगह कम जान पडती थी। उनके अंदर का फौजी अनुशासन पक्का सुबह चार बजे जागते, पीटी परेड, रोल काॅल पर यह सिक्योरिटीज गार्ड के साथ ही बाकियों के लिए भी नीद मे खलल डालने जैसा था। 

सब परेशान थे पर कौन समझाये, बीबी पहले ही गुजर चुकी थीं। बेटे ने एक बार प्रयास किया तो उसे जो फटकार पड़ी दुबारा किसी का साहस नही हुआ। जीतन से धीरे धीरे आस पडोस के लोग कन्नी काटने लगे थे। उन्हें भी शहर उबाऊ और नीरस लगने लगा था। 


उनमें कुछ दिन के लिए अपने गांव जाकर पुस्तैनी मकान मे रहने की इच्छा जागृत हुई तो चल पड़े। यहां पास पड़ोस को जैसे नया जीवन मिला गया हो।

दूधिए से लेकर कामवाली तक सबने चैन भरी राहत की सांस ली। वहां गांव में अपने पुराने मकान की मरम्मत कराकर जीतन उसमें रहने लगे।

 होसिल और चिंता उनके बचपन के दोस्त थे दिन भर गांव के ताल के किनारे ताश होता नये नये दोस्त मिलने लगते हालांकि जान पहचान पुरानी ही थी। रही सही कसर कैन्टीन वाली दारू कर देती।

 एक दिन ताव मे लखन का लड़का अजीत बोला "चचा, दारू के साथ लालसर भी होती तो मजा आ जाता। 


लालसर खाये एक अरसा हो गया था। बाबू जी के समय मे मिलती थी पर स्वाद अभी तक नही भूला है। बस फिर क्या तय हुआ टोली बनी और शिकार के लिए तो यही मौसम ठीक हैं। इसमे ताल मे प्रवासी पक्षी आते ही हैं।

अगली रात को दस बारह लोग के जाने की सहमति बनी। शिकार के लिए जरूरी सामान टार्च, टीन की थाली, जाल और नाव आदि जुटा लिए गये थे। कर्मा मल्लाह नाव चलाने मे मास्टर हैं। चिडिया के बगल तक चला जाये तब भी उसे पता ना चले। उसने दल मे सभी को उनका उनका काम समझा दिया था। शिकार का वक्त आ गया सभी पुरानी यादें ताजा करने चल पडे थे। रास्ते मे चिंता के पट्टीदार सोखा के पांव के नीचे सांप आ गया वो तो डीह बाबा रक्षा किये पनियहवां सांप था। पनियवहां सांप जहरीला नही होता है। थाली बजने के साथ ही शिकार की शुरूआत हो चली थी। सभी अपनी अपनी जगह पर दी गई भूमिका निभाने के लिए तैयार थे। टार्च की रौशनी मे आंखे चुधियां जाने से पक्षी घबरा जाते थे इतनी देर मे उन्हे लपेटकर थैले मे रख लिया जाता था। इसी लपकने के प्रयास मे हासिल पानी मे गिर पड़ा था। करीबन 20 से ज्यादा चिड़िया पकड़ ली गई थीं। जीतन ने सोचा यदि ऐसा ही चलता रहा तो दोबारी क्यूं ढो कर लाया। कर्मा ने धीरे से सबको वापस लौटने का इशारा किया सब वापस लौटने की जुगत मे लग रहे थे की जीतन को टार्च की रौशनी मे एक मोटी लालसर दिख पड़ी थी। शब्दभेदी निशाने से सबके बीच अपने निशानची होने का दबदबा बनाने की ललक मे उसने फायर झौंक दिया।



अचानक हुए इस हमले से सभी घबरा गये पक्षियों के झुंड मे हलचल मच गई और यह कोलाहल गांव तक पहुंच गया। सब ताल से बाहर निकले ही थे की सामने पुलिस की गाड़ी आती दिखी। सिपाही ने थोड़ा धमकाकर पूछा तो कर्मा टूट गया सब सच सच बता दिया।

प्रवासी संरक्षित पक्षियों के अवैध शिकार के जुर्म मे सबको थाने में लाया गया। रातभर सभी हवालात मे बंद रहे सुबह मिलने आये प्रधान जी ने बताया दरोगा ने 50,000 की मांग की है नही तो तस्करी का केस बनायेगा। सब रोने चिल्लाने लगे थे घबराये हुए कोई अपना सिर पीट रहा था। कोई जीतन को कोस रहा था। रोते पीटते बड़ी मुश्किल से 30,000 मे बात बनी। दल मे बाकि तो सब फट़क लाल थे निठल्ले सारा बिल जीतन के माथे पडा था। थानेदार ने बडा दिल दिखाते हुए थैले मे से एक लालसर जीतन को थमाते हुए कहा मेरी दरियादिली है जो इतने मे ही छोड़ रहा हूं नही तो इस जुर्म की जमानत ही नही है। आराम से चार पांच साल के लिए अंदर जाते और कचहरी का चक्कर लगाते सो अलग। जीतन चुपचाप 30,000 की कीमत देकर लालसर वाला थैला कंधे पर लटकाए घर की तरफ चल पड़े।

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:---शशिवेन्द्र "शशि"


प्रधानी:---- (अपनों के टकराव की कहानी)

खेमू चौधरी गांव के मध्यमवर्गीय किसान थे चार बेटों मेवालाल, खूबलाल, रतिलाल और हरिलाल समेत भरा पूरा परिवार था। ठेठ मेहनती लोग अपने खेतों मे काम करते हर साल मंडी मे सबसे ज्यादा अनाज बेचते थे। खेमू ने बडी शराफत से अपने बच्चों की परवरिश की थी किसी का एक भी रूपया उधार नही, नशे का नाम तक नही। दौर बदला बच्चों के बच्चे हुए परिवार बडा हुआ। 

बड़े परिवार मे अलगाव हो ही जाता है। सब अपनी अपनी जिन्दगी मे राजी खुशी थे फिर भी मेवा और रति के परिवार मे विशेष स्नेह था जबकि खूबलाल और हरिलाल साढू थे। आज भी कहीं से निमंत्रण एक ही आता था। सरकार ने स्थानीय प्रशासन को सशक्त करने हेतु पंचायती राज लागू किया। चार बार से प्रधानी मेवालाल के परिवार मे ही थी दो बार खुद और दो बार बेटा अवधेश। हर बार चुनाव मे चारो भाइयों का परिवार एकजुट जाता था और प्रभावी ढंग से चुनाव जीत लिया जाता था। पर अबकी बार हरि का बेटा रतन भी चुनाव लड़ना चाह रहा है, बाप बेटे दोनो गांववालो को जनाते फिर रहे हैं। सोमवार को कीर्तन वाले दिन हरि अपने भाई मेवालाल से कह रहा था।

दद्दा अबकी रतनू भी प्रधानी का मन बनाये है, अवधू मान जाता तो अच्छा रहता।

पर मेवालाल को प्रधानी का स्वाद खूब पता था और सब छोड़ो फटफटिया पर बैठ कहीं जाने पर जो सम्मान मिलता हैं, लोग कुर्सी से उठकर अगवानी करते हैं। पिछली दफा नरेनदर के ससुराल मे झगड़े की पंचायत मे गये तो प्रधान जी कह कर कितना सम्मान हुआ था।



अब यह मजा सेंती मे थोड़े गंवाया जायेगा। पर हरिया को भी रूष्ट नही करना है। क्या पता किसका बुरा मान जाये फिर सहोदर का रूठना तो किसी के हित मे नही रहता। इस असंतोष मे तो रावण दुर्योधन का राज पलट गया।

किशोर एक काम कर अबकी बार लास्ट अवधेश को लडाते है अगली बार रतन को। मेवा समझाते हुए बोला

किशोर मुंह से तो कुछ नही बोला था पर भाव पूर्णतया अनिच्छा झलक रही थी। मेवा ने झट भांप लिया उसे कई प्रलोभन दिए वार्ड सदस्य से लेकर जिला पंचायत तक सब बता दिया पर किशोर टस से मस न हुआ।

मेवा बड़ा था छोटे भाईयों से उसे ना सुनने की आदत थी नही, झुंझलाहट मे बोला चल फिर लड़कर ही देख ले किसके जूते मे दम हैं।

हरिलाल हालांकि भाई को ना कहने के अपराधबोध मे किंकर्तव्यविमूढ़ था पर भाई के इस अप्रत्याशित व्यवहार से उसे अवसर मिल गया और उसने इस बात की गांठ बांध ली। जब तक मेवा को अपनी गलती का अह्सास होता बहुत देर हो चुकी थी। उसने हरि को समझाने के सारे हथकंडे अपनाये उसकी पत्नी अपने लाडले देवर को समझाने खुद उसके घर पर आयी पर हरि एक ही बात की रट लगाये था दद्दा ने चुनौती दे दी है।बात जब किसी तरह नही संभली और चुनाव आ गये। दोनो पक्षों ने क्षमता से बाहर जाकर खर्च करना शुरू किया, खर्च सुरसा के मुह की तरह फैलता ही जाये गहने बेचे, मवेशी बेच दिए,खेत रेहन रख दिए और भी जहां कही से बन पड़ा लेकर चुनाव जीतने का दम बनाया गया। पर चुनाव तो एक खेल की भांति है, हार जीत लगी रहती है, मत बंटवारे की वजह से दोनो पक्ष हार गये थे। तीसरा व्यक्ति बाजी मार ले गया, इतना बड़ा दांव हारने के बाद दोनो ही पक्ष एक दूसरे पर क्रोधित थे बस फिर क्या खींच गई लाठियां और बिना अपनेपन का लिहाज किये बरस पड़ी एक दूसरे पर। 



बड़े छोटे का लिहाज नही जिन हाथों ने गोद मे बिठाकर कभी गांव भर घुमाया था उन पर रत्तीभर मुरव्वत नहीं।थोड़ी ही देर मे सब लहूलुहान होकर धरती पर पड़ गये थे। गांव वालो ने उन्हे अस्पताल पहुंचाया इलाज के दौरान दोनो पक्षों के लोग असपताल मे भर्ती रहे। आधी रात का समय था खेमू सिर पर हाथ रखे अस्पताल के बाहर बैठे थे थोड़े समय पर जैसे ही अंदर से किसी के होश मे आने की खबर मिलती एक गहरी सांस के साथ एक बीड़ी सुलगा लेते थे।

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शशिवेन्द्र "शशि"

मंगलवार, 22 नवंबर 2022

गीत

रामसुख महतो के नाम की तरह ही उनके जीवन मे राम का दिया सुख ही सुख था। दो स्वस्थ बैल, दो सुन्दर सुशील बेटे सुलक्षणी पत्नी चना चबैना जो भी होता था अपने घर का होता। सभी निरोगी थे और क्या ही चाहिए होता है एक गृहस्थ को। महतो एक जलसे मे गये वहां बिरहा कार्यक्रम मे एक गाना सुना 

"हमरे दुगो ललनवा महान बाबू

एगो रहे सीमा पर एगो किसान बाबू।।"



महतो को यह जीवंत गीत भा गया यूं लगा जैसे यह गीत उनके लिए ही बना हो। उन्होने ठान लिया बड़े बेटे आनंद को सेना मे भेजेंगे और छोटे वाले अजय को खेती का काम देंगे। आनंद पढ़ने मे होशियार था और मेहनती भी खूब दौड़ भाग करता मेहनत करता। जब बारहवीं मे अव्वल आया तो पिता को बड़ी खुशी हुई। उसके दोस्त शहर की भर्ती रैली मे जा रहे थे आनंद भी उनके साथ हो लिया। बरसों से इसकी ही तैयारी थी अतः उसका सिलेक्शन हो गया। शाम को घर लौटकर जब यह खबर बूढ़े पिता को सुनाया तो महतो ने उसे गले से लगा लिया।


फौज की ट्रेनिंग बड़ी कठिन होती है आनंद ने उसे जी-जान से पूरी कर पोस्टिंग प्राप्त की। कच्छ के रण की अपनी अलग ही कठिनाईयां थी जैसे नंगे पैर नही चल सकते, जहरीले सांप बिच्छूओं का कदम कदम पे खतरा पर पहली पोस्टिंग और जवानी के दिनों में अपने सपने के पूरे होते देखने के उत्साह के सन्मुख यह कुछ भी नही था। आनंद की शादी के लिए दूर दूर से रिश्ते आने लगे, जाति गोत देखकर मास्टर ब्रजनाथ की बेटी से लगन तय हुआ। मास्टर की बेटी पढी लिखी थी सुन्दर और सुशील भी। शादी हुई परिवार बढ़ा आनंद का ओहदा भी बढ़ गया सिपाही से हवलदार और इधर महतो छोटे बेटे के साथ खेतों मे जमकर मेहनत करते घर मे चार लोग कमाने वाले आस पड़ोस के खेत भी खरीद लिए। 


अब महतो की गिनती इलाके के संपन्न लोगो मे होने लगी। छोटे बेटे के लिए और अच्छे रिश्ते आने लगे, पड़ोस के गांव के ओंकार महतो का शहर मे अच्छा काम जम गया था लोग इज्जत से ओंकार बाबू कहने लगे थे। शादी तय हुई और नई बहू दहेज मे ट्रैक्टर ले आई। ट्रैक्टर बड़े कमाल की चीज था बीघा भर खेत कम समय मे ही जोत देता था। पर महतो को जाने क्यो इससे ज्यादा अपने बैलों से स्नेह था ट्रैक्टर के नखरे अलग महंगा तेल पीता था घड़ी घड़ी नखरे कभी पिसटन तो कभी पहिए हमेशा कुछ न कुछ गडबड़ी।


छोटी बहू भी थोडी अलग मिजाज की थी घर मे किसी से नही बनता बात बात पर ताने मारती थी। दरअसल व्यापारी पिता की इकलौती बेटी थी दिखावा उसके जीवन का अभिन्न अंग था। सुबह और शाम की ही भांति जन्म और मृत्यु भी धरती का अनिवार्य सच हैं। महतो के स्वर्गवास के बाद दोनो भाई बंटवारे के लिए आमने सामने थे। बहुओं ने अपने अपने पसंद के पंच बुला लिए दोनो भाई भी पत्नियों के आग्रह पर आ गये। दरवाजे पर इक छोटी भीड़ इकट्ठा थी सामान बराबर बांट कर रख दिए गये थे, बूढी मां चुप बैठी देख रही थी। एक पंच ने आवाज लगायी हां भाई तुम दोनो बोलो कौन सा हिस्सा किसे चाहिए।

आनंद बोलता इससे पहले ही अजय बोला " बाबूजी के बाद भैया ही बड़े है सब उनकी ही कमाई से खरीदा है उन्हें जो चाहिए वो वापस ले लें।

आनंद उसे रोकते हुए बोला " हां मेला बाजार मे तो हमसे पहले तुम खिलौना लेते हुए आया है। अपनी मेहनत से तुमने दो का चार किया है आज भी तुम ही पहले बोलो, यह कहते हुए उसका गला भर्रा गया।

छोटा रोते हुए उससे लिपट गया। दोनो भाई एक दूसरे को अंक मे भर कर रोने लगे असमंजस पंचो की भी आंखे नम हो गई। बहुएं लज्जित सी ड्योढी मे अपने पतियों के इस कारनामें को आश्चर्य से देख रहीं थीं।

बुढ़िया महतो वाला पुराना गीत गुनगुनाते अंदर हुक्का भरने चली गई।

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शशिवेन्द्र "शशि"

सोमवार, 21 नवंबर 2022

आहूति

 पिता की मौत होने के बाद घर की जिम्मेदारियों से प्रभावित अमरेन्द्र एक छोटे से अस्पताल मे सुरक्षाकर्मी की नौकरी करने लगा। पिता की छत्र छाया मे कभी खाने पीने की कमी नही रही थी खाने पीने के शौकीन हल्की मूंछो वाले अमरेन्द्र का बजरंग बली मे बड़ा भरोसा था। नौकरी के पहले दिन से ही अपने मिलनसार व्यवहार से उसने सबका हृदय जीत लिया था। 



धीरे धीरे समय बीतता गया जिम्मेदारियां बढ़ती गई पुराने लोग खत्म हो गये समय के साथ अस्पताल का बिजनेस भी बढ़ा कुछ नही बढा तो वो था अमरेन्द्र का ओहदा। तीस वर्षों से उसी पद पर रहे। दशकों लंबा आयुर्वेदिक इलाज करा रहे मरीज हर महीने मिलते थे उनसे खूब जन पहचान थी। तनख्वाह के अतिरिक्त कुछ उपरी आमदनी भी हो जाती थी बात व्यवहार मे कुशल अमरेन्द्र का कभी कभी झगड़ा भी हो जाता था। जिस संस्था को अपना खून पसीना दिया उसने कभी न्याय नही किया दीवाली के बोनस के अतिरिक्त कोई अलग प्रोत्साहन नही।

अस्पताल का काम बढा वह एक शोध और शिक्षण संस्थान मे बदल चुका था 



सभी पुराने स्टाफ की तरक्की हो गई थी यहां तक की काउंटर पर पर्ची बनाने वाले क्लर्क भी अब मैनेजर बन कर मोटी सैलरी लेने लगे थे पर पाल का काम अब भी वही था। फिर भी ईश्वरीय शक्ति मे यकीन कर बडी निष्ठा से काम करता रहा जब अस्पताल के सुरक्षा व्यवस्था का टेंडर जारी हुआ।

बड़ी बड़ी प्राइवेट सुरक्षा एजेन्सियों ने दिलचस्पी दिखाई अमरेन्द्र ने भी एक छोटी सी कंपनी बनाकर टेंडर डाल दिया था। मालिक का बेटा रोहन जो स्विट्जरलैंड मे कहीं सैटल था वो पाल को जानता था उससे सिफारिश की तो उसने हां कर दिया। मगर मणिदास ने ऐन वक्त पर अडंगा लगा दिया और होता होता काम रूक गया। सहकर्मी और कंपनी को तेज तर्रार बन्दा नही चाहिए था। कुछ बहाने से पाल को छुट्टी दे दी गई और वह बेरोजगार हो गया।

मुसीबतें अकेले थोड़े आती हैं, संक्रामक बीमारी कोरोना ने कोढ मे खाज कर दी, बीमार हुए तो इसी अस्पताल मे भर्ती हुए।



संक्रमण ज्यादा था इलाज के दौरान मौत हो गई परिवार वालों को शव देने हेतु अस्पताल ने लाख का बिल बनाया।

वर्षो से आर्थिक परेशानी से जूझता परिवार बिल चुका पाने मे असमर्थ था। बेटा और पत्नी अस्पताल के हैड के पास गये, विनती की हाथ जोड़े तब पसीजकर अस्पताल प्रशासन ने करूणा दिखाते हुए अपने पूर्व कर्मचारी की सेवाओं को ध्यान मे रखते हुए बिल मे 30 प्रतिशत का डिस्काउंट दिया। पाल का खरीदा एक ही प्लाट रह गया था, वह औने पौने दाम मे बेच कर बिल का भुगतान कर शव का अंतिम संस्कार किया गया।

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:-शशिवेन्द्र "शशि"

शुक्रवार, 18 नवंबर 2022

सम्मान

पहलवान जतन चौधरी का इलाके मे काफी नाम था दूर दूर तक कुश्ती मे कोई सानी नही था। मन मे राष्ट्रीय स्तर पर कभी ना खेल पाने का मलाल रह गया था। माता पिता अधूरे सपने को अपने बच्चो की आंखों मे देखने लगते हैं जब शादी हुई और एक के बाद एक तीन लडकियां हुई तो जतन को अपना सपना टूटता दिखा।


मन मसोस कर रह गया छोरियां क्या पहलवानी करेंगी और फिर... खैर छोड़ो यह सपना छोड़कर जतन ने खेती और काम धंधे पर मन लगाना शुरू किया पहलवानी मे सीखी लगन और अनुशासन ने यहां भी रंग दिखाया और जल्दी ही क्षेत्र के सबसे समृद्ध किसानों मे गिनती होने लगी। बेटियां बड़ी हुई तो दो की शादी कर दी बस अब तीसरी बच रही थी। वो अभी कॉलेज मे पढ़ाई कर रही है सोचा पढ लिखकर अफसर भी लग जाये तो ठीक नाम हो जाये। पर उसका मन तो कही और ही है शायद नेतागिरी मे।

नेतागिरी मे आज तक हमारे खानदान से किसी ने कभी चुनाव ना लडा, हम वोट तक अनमने ढंग से डालते हैं फिर क्या करेगी यह चुनाव लड़कर। पिछली बार अपने कालेज के किसी चुनाव की बात कर रही थी। ना भैया ना मेरी बेटी नही लडेगी, हमारे खानदान की इज्जत दांव पर ना लगायेगी।


अबकी घर आती है तो शादी की बात चलाउंगा शादी कर अपने घर जा वहीं लडे चुनाव। जतन ने ट्रैक्टर पर बैठे बगल की सीट पर बैठी पत्नी से कहा। पत्नी चुप रही वो भी अच्छे खाते पीते घर से आयी थी थोडी बहुत पढी भी थी पर जतन के घर मे बोलने की ज्यादा स्वतंत्रता नही थीं सो चुप ही रहती थी।

जब बेटी ललिता अबकी घर आयी तो बाप बेटी मे बात शुरू हुई बेटी नई नई बातें बता रही थी। चौधरी बोलना चाह रहा था पर उसकी बाते सुनी तो चुप सुनता रह गया। बाते तो बड़ी अच्छी करती है सुन्दर तर्कपूर्ण समुचित उत्तर, चौधरी दाव पेच का सामंजस्य खूब समझता था उसे चर्चा की इस कुश्ती मे पुत्री से हारते हुए बड़ा अच्छा लगा।

कई दिन बीत गये बेटी की छुटटियां खत्म हो गई थीं अब वह वापस जाने वाली थी बाकी दोनो बिटिया भी छुट्टी मे आ गयीं थीं चौधरी ने सही समय देख ललिता को बुलाया।

ललिता आंगन मे पडें तखत पर बैठ गई चौधरी आंगन के मोढे पर बैठा बोला " बेटा जमाना खराब है, मुझे चिन्ता होती हैं, आजकल बेटियों के साथ हादसे हो रहे हैं। लोगो मे पाप पुण्य का भय खत्म हो गया है। मेरी बात मान अब शादी कर ले मैने एक लड़का देखा है। सुन्दर पढा लिखा है और दिल्ली पुलिस मे इंस्पेक्टर है। ललिता ठिठक गई बापू आज क्या हो गया, अचानक ये क्यों अभी सुबह तक तो सब ठीक था। जवान बेटी का बाप चिन्ता तो करेगा ही।

हां बापू पर मैंने ऐसा क्या किया, जो आप परेशान हो रहे।मै तो आपका ही नाम बढाउंगी। धीरे से ही सही सभी ने उसका समर्थन किया।



चौधरी निरूत्तर था चार औरतें वो अकेला पत्नी की तरफ इशारा करके बोला समझाओ इसे।

बड़ी बेटी बोली "पापा जी ललिता ने बहुत मेहनत की है उसे इस बार अपने मन की कर लेने दो।

चौधरी घूरते हुए मुड़ा ही था की पत्नी की आवाज आयी "जब बेटियां इतनी मिन्नते कर रही है तो इस बार खुद को ही समझा लो। बात व्यंग्यपूर्ण थी पर मर्मपूर्ण थी।

चौधरी मैने और मेरी बेटियों ने कभी तुम्हारी मूंछ नीची ना होने दी भरोसा रखो।

बात सही थी चौधरी चुप रह गया बेटी को बस स्टैंड तक छोड़कर आया।

समय बीतता गया एक दिन शाम को ललिता का फोन आया वो विश्वविद्यालय का छात्रसंघ का चुनाव जीत गई है। अगले दिन सुबह नौ बजे तक चौधरी के घर के आगे हजारों की भीड़ जुट गई बधाई देने वालों का तांता लगा था। फूल मालाओं से लदी ललिता ने पिता के चरण स्पर्श किए तो चौधरी की मूंछे बिना ताव दिए ही आसमान छूं रहीं थीं।

बेटी के इस सम्मान  से अभिभूत चौधरी की आंखे विजय के गर्व से नम थी।

#Ssps96 

शशिवेन्द्र "शशि"

महात्म्य :

रामाज्ञा वैद्य अब बुजुर्ग हो चले थे। इधर गांव मे आज भी कोसों दूर तक कोई भी उनकी तरह कारगर नही था। हालांकि आयु 90 वर्ष पार कर चुकी थी पर यम नियम के इतने पक्के थे कि दूसरे की पकायी चीज तक नही खाते थे। उनका गांव शहर से काफी दूर था और  आवागमन के लिए लोगो के पास सीमित साधन थे। वैसे तो गांव मे सब कुछ ठीक ही रहता था और जो थोड़ा बहुत ही कुछ होता तो वैद्य जी संभाल लेते थे। आधुनिक दौर मे भी उनका आयुर्वेदिक दवाएं गजब का कमाल करती थीं। 

इस दौर मे भी गांव अपनी जरूरतों के लिए खुद पर ही निर्भर रहता था। छोटी छोटी जरूरतों के लिए शहर का मुंह नही देखना पडता। 

वैद्य जी का बेटा हरीश अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी कर शहर मे ही नौकरी करने लगा। पिता पुत्र के स्वभाव में बहुत फर्क था। दोनो के लिए धर्म और कर्तव्य का अर्थ भी अलग था। एक के लिए मानव सेवा ही धर्म तो दूसरे को सेवा के मोल से अधिक मतलब था। वैद्य जी ने खूब समझाया पैसा प्राथमिक नही होता लोकसेवा से अर्जित पुण्य का ही असल महत्व हैं पर बेटे पर आधुनिकता का रंग ऐसा चढ़ा था की वह पैसे को ही सब कुछ समझता था।

वैद्य जी ने भी इसे अपना भाग्यफल मान खुद को सहज बना लिया था। पत्नी के साथ अपने खेतों मे खूब मेहनत करते एवं प्रकृति के सानिध्य मे ही रहते। इससे मानो उनकी आयु जैसे स्थिर बनी हुई थी परन्तु इसके विपरीत पुत्र हरीश ज्यादा मेहनत करता और आय के चक्कर मे शहर के आपाधापी भरे जीवन में रहते हुए उसे नित्यप्रति रोगियों के साथ रहते रहते स्वयं भी थोड़े अस्वस्थ रहने लगा था। 


पर यह दौर पैसे कमाने का है और लक्ष्मी तो कर्मठ व्यक्ति की ही पकड़ मे आती हैं। यही सोचकर दिन रात एक कर दिया था। एक हास्पिटल भी खोल लिया था व्यस्तता मे हफ्ते मे एकाध बार माता पिता से बात भी हो जाती। 

हालांकि पुत्र प्रेम मे विह्वल वैद्य जी हां हूं बोल देते पर अवसर मिलते ही बेटे को नैतिकता का पाठ भी अवश्य पढा दिया करते थे। हरीश को पिता की बातें नागवार लगती शहर मे कितना नाम है मेरा और एक ये हैं जो मुझे अलग ही नसीहत दे रहे हैं। शायद पिता जी अपने जीवन मे कुछ खास नही कर पाये अतः उनको थोड़ा अपमान महसूस करते होंगे।

नियति ने माता पिता दो ऐसे रिश्ते बनाये है जो हमेशा अपनी संतान को खुद से आगे देखना चाहते हैं। परंतु जब ऐसा अभिमान पुत्र के मन मे पलने लगे तब उसका नष्ट होना भी तय हो जाता हैं। पग पग पर स्पर्धा से भरे इस जीवन मे कोई आपको स्वयं से आगे देखना चाहता है वह पिता होता है।

पुत्र के विशेष हठ पर वैद्य जी पत्नी समेत कुछ दिनो के लिए शहर आये थे। बेटे ने बड़ी चालाकी से अपना वैभव दिखाने बुलाया था। 

दुपहर के समय अस्पताल का एक चक्कर लगाते वैद्य जी एक औरत और एक लडके से मिले जिन्हे डाक्टर के जवाब ने बड़ा परेशान कर रखा था। वह पुरूष एक असाध्य रोग से पीड़ित था और मृत्यु के काफी नजदीक था।



वैद्य जी ने उनकी बातें सुनी उसकी नब्ज पकड़ी और जब कुछ मर्ज समझ मे आया तो बोले बाबू आज तो मै घर जा रहा हूं आपको इलाज चाहिए तो मेरे साथ वहां चलो। मृत्यु के निकट व्यक्ति को जब कोई और उपाय न सूझता देख वह उनके साथ हो लिया। परिवार भी जीवन की आस मिलती देख अपनी सहमति दे देता हैं।

सश्रम जीवनयापन और वैद्य जी की औषधियों का प्रयोग करते हुए बरसों बीत चुके थे रोगी अब स्वस्थ हो चला था। गांव की प्राकृतिक आबो हवा और स्वस्थ खुराक से हृष्ट-पुष्ट भी हो गया था।

अबकी बार जब वैद्य जी हरीश से मिलने आये तो उस व्यक्ति को भी अपने साथ ले आये। उसका परिवार इस बात से बहुत खुश था। जबकि हरीश चुपचाप खड़ा अपने पिता के ज्ञान और आयुर्वेद के महात्म्य को अब समझ पाया था।।

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शशिवेन्द्र "शशि"


बुधवार, 16 नवंबर 2022

दुविधा

आज महिला काॅलेज मे कालीदास लिखित मेघदूतम पढ़ाते समय अंजना स्वयं को थोड़ा असहज महसुस कर रही थी। कई वर्षों बाद ऐसा हुआ था।

45 मिनट के हिन्दी के पीरियड का एक एक पल ऐसे दुश्वारियों से बीत रहा था मानो सदियां हो। पीरियड पूरा कर वो लाइब्रेरी की तरफ लाॅन की बेंच पर जाकर बैठ गई। अंजना के सामने पूरा वाक्या एक खटठे मीठे सपने की भांति गुजरने लगा।



दशकों पहले जब ललित का परिवार पड़ोस मे आया था उसके पिता जलविभाग मे सेक्शन आफिसर थे उनका टाइप II क्वार्टर था जबकि अंजना के पिता क्लर्क थे सो इन्हे टाइप lll मिला था। जगह थोड़ी कम थी पर खुशियों और जिंदादिली से लबालब भरी हुई थी।

कैसे वह दुबला पतला संकोची लड़का अपनी मां के साथ अंजना के यहां कोचिंग के लिए पूछते हुए आया था। किसने सोचा था, यह शुरूआती परिचय जीवन भर के लिए साथी बना जायेगी। धीरे धीरे समय बीतता गया और परिचय प्रीति मे परिवर्तित हुआ फिर रिश्ते में और अब विछोह।

समय ने कितना निष्ठुर बना दिया है उसे।

तरक्की की अंधी दौड़ मे किसी विक्षिप्त की भांति दौड़ लगाता जा रहा हैं वो।

सुना है मां बाप की भी सुध नही ले रहा। 

ठीक ही तो है, जिस माता पिता ने ऐसे संस्कार दिए इतनी भौतिकवादिता सिखाया हैं उनका यही हश्र हो, वे भी तो भुगते।

उनके पडोसन से बात होती है एक दिन वो भी बता रही थी कि माता पिता को नौकरों के हवाले कर ललित अमेरिका में ही रह रहा हैं।

क्या पता शादी भी कर ली है, हुंह कर ले मेरी बला से मुझे क्या फर्क पड़ता हैं।

शादी तो नही की होगी, अधीर मन को अभीप्सा ने एक अधूरी सांत्वना दी।

काश शादी न की हो पर क्या ही फर्क पडता हैं, ये सब कुछ पहले जैसा तो हो नही सकता।

एक बार को हो भी जाये पर उसका हाथ उठाना कहीं से भी जायज न था आत्मसम्मान पर चोट को कोई कैसे भूल जायें।

जाने दो छूट गया तो अब भविष्य की तरफ देखो, मन के अभिमान ने अपने टूटेपन को समझाया।

यह लघु मानव जीवन प्रेम के लिए ही पूरा नही पड़ता पर निष्ठुर इसमे भी संतुष्ट नही हैं।

मुझे भी इसी से प्रीत होनी थी, खुद पर भी थोड़ी झुंझलाहट हुई।

अभी इन ख्यालों मे खोयी वो गाड़ी मे बैठी ही थी की मोबाइल की घंटी बजी।



स्क्रीन पर ललित के पिता का नंबर था अंजना ने नही उठाया, इन्होने भी बेटे का ही साथ दिया इकलौते बेटे की गलती पर उसे रोका नही। क्रोध ने इस निर्णय को बल दिया।

आने क्यूं इतनी महत्वकांक्षा भरते हैं लोग अपने बेटे मे की वो गलत सही की पहचान भूल जाये और अभिमान में किसी का जीवन भी नष्ट कर दे। अपने चरम पर क्रोध प्रतिशोध का रूप ले लेता है और प्रतिद्वंदी को दंडित करने का कोई अवसर नही छोड़ता।

गाड़ी घर पहुंची तो बोझिल कदमों से अपने कमरे की तरफ बढ़ गई पर घर मे घुसते ही ललित अपने पूरे परिवार संग खड़ा मिला था।



दुबला पतला बीमार सा हो गया था। अधपके बाल और उसका चेहरा और होठ जिन पर कभी सुन्दर लालिमा रहती थी वहां अब प्रायश्चित की कालिमा सी दिख रही थी।

वो चुपचाप बिना किसी प्रतिक्रिया के अपने कमरे की तरफ बढ़ी ही थी की ललित के पिता ने आवाज दी "बेटा तेरे सारे गुनाहगार एक साथ यहां तेरे सामने खड़े हैं"

हो चुकी इनकी महत्वाकांक्षा की दौड़ पूरी

बन लिए ये दुनिया के वारेन बफेट। पिता ने ललित की तरफ हिकारत से इशारा करते हुए कहा।

बच्चे तुम हमारी कुछ सजा तय करो या क्षमा करो। ससुर हाथ जोड़कर बोले हाथ जोड़े ललित के संग समूचा परिवार खड़ा था।

ललित नजरें झुकाये खड़ा माता पिता की बातों से सहमत अपराधबोध मे घिरा खुद को धिक्कारता नकारता हुआ खड़ा था।

हृदय मे पीड़ा और सजल नेत्रों मे सत्य और विजित भावों को संग लिए वो किचन की ओर बढ़ चली।


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शशिवेन्द्र "शशि"


मंगलवार, 15 नवंबर 2022

गोताखोर

गोताखोर

 घाट पर नाव से यात्रियों को पार कराना नरेश मल्लाह का पुस्तैनी काम था। आधुनिक युग मे जब मोटर चालित स्टीमरों की वजह से काम कम हो गया था। लोग मोटर पर बैठ फर्राटा चलना चाहते थे रही सही कसर सरकार के पुल बनाने की तत्परता ने कर दिए थे। 



अब यात्रियों के लिए लंबा इंतजार और फिर मोल भाव। जब खाने के भी लाले पडने लगे तो नरेश ने काम बदलने की सोची जाने गंगा मैया क्या ही कराना चाह रही हैं। अपनी गोद से क्यूं निकाल रही हैं सोचा था बाप दादा की तरह हम भी यहीं मुक्ति  पायेंगे पर जैसी मैया की मर्जी। असमंजस के इस सागर मे गोते लगाते नरेश को यह भी ध्यान नही रहा की पुलिस की गाड़ी बगल मे आकर रूकी हैं। 

यह नाव तुम्हारी है, सिपाही के प्रश्न से तन्द्रा टूटी

हां जी मेरी है, क्या हुआ

कप्तान साहब का परिवार नदी की सैर करने आया हैं।

उन सबको सैर करा दो।



नरेश समझ गया आज का दिन तो बेगारी मे ही जायेगा

सिपाही लोग आते रहते हैं कभी तस्कर, जुआरी और शराब पकड़ने पर भूले से कभी पैसे न दिए।

वह अनमने ढंग से उठा नाव पर सवार बिठा लिए और बरहा खोल कर नाव को कमर भर पानी में धकेल कर ले गया फिर बांस से धक्का देकर मुख्य धारा की तरफ को आगे बढ़ा ही था कि उनमे से एक युवती ने जयकारा लगाया गंगा मैया की जय!

सभी ने जयकारा किया पर हल्के और चौकते स्वर में लेकिन एक महिला थोड़ी लज्जित सी चुप रही थी। नरेश को कुछ समझ नही आया पर वह अनभिज्ञता दर्शाता चुपचाप नाव खेवने लगा।

नाव हिलती डुलती संभलती मुख्य धारा की ओर बढ़ रही थी। नदी के किनारे से पक्षियों का कलरव सुनायी दे रहा है हालाँकि टिटहरी की चीख से पूरा क्षेत्र गुंजायमान हो जा रहा था। बच्चे बड़े उत्साहित थे इस रोमांचित कर देने वाली यात्रा से नाव का अगला सिरा पानी को चीरता यूं आगे बढ़ रहा था जैसे कोई अश्वारोही शत्रु दल को परास्त करता चला जा रहा हों।

पानी की तेज धार नाव से टकरा कर अलग संगीत प्रस्तुत कर रही थी अक्सर यात्रा की आपा धापी में वह इस सुन्दर धुन को नही सुन पाता और जल्दबाजी मे मोटर की फट फट सुन कर लौट जाते थे। कितनी समानता है नदी और मनुष्य के जीवन में बचपन के किनारे से शुरू हो यौवन की बलवती धार को साधती दूसरे किनारे तक की वृद्धता। यौवन, सुन्दरता और आकर्षण के बारे मे सोचते हुए उसकी नजर उस लड़की की तरफ पड़ी 20 वर्ष के आस पास होगी चेहरे पर गजब़...



नाविक ठिठक गया उस युवती के चेहरे की तरफ देखते ही वह चौंक गया। उसके चेहरे का सारा लावण्य और मासूमियत भयानक गुस्से मे बदल चुका था। वो जोर से चीखी "अमित मैं भी आ रही हूं" और नदी मे छलांग लगा दी।

क्षण भर भी गंवाना व्यर्थ था नरेश भी कूद पड़ा नाव पर सभी चीखने चिल्लाने लगे। घाट से भी कुछ लोग मदद को नदी मे कूद पड़े।

नरेश झट युवती का हाथ बांधे अपनी तरफ खींचता किनारे की तरफ ले आया।

युवती की मां मल्लाह के पैरों पर गिर पड़ी युवती को भी थोडी देर बाद होश आ गया था।  पता लगा किसी प्रिय के सदमे मे युवती कभी कभी विक्षिप्त हरकत कर देती थी।

कप्तान साहब को यह पता चला तो इस अहसान के बदले उनकी सिफ़ारिश पर नरेश को जिले की गोताखोर टीम मे तनख्वाह पर रख लिया गया।

ऐ गंगा मैया तोहके पियरी चढाइबें.... वाला गीत नरेश के कंठ से पुनः घाट पर गूंजने लगा।

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शशिवेन्द्र "शशि"

सोमवार, 14 नवंबर 2022

घर वापसी

माता पिता वैसे तो सभीं बच्चो से बराबर प्रीति रखते हैं परन्तु पिता की निकटता पुत्री से अधिक होती है शायद पिता पुत्र दो पुरूष आपस मे ज्यादा निकट होने के कारण बाद मे होने वाले विछोह से डरते हों। अंबिका सेठ नगर के धनाढ्य एवं प्रभावी लोगों मे से एक थे धंधा व्यापार दूर दूर तक फैला था। करीबन सौ से ज्यादा मातहत थे पर सेठ बड़े धर्मात्मा थे उनका मानना था जहां धर्म है वहीं लक्ष्मी हैं। सेठ के दो बच्चों मे बेटी संगीता बड़ी थी बेटा छोटा था। सेठ जब शाम को आते तो खाने से पहले दिन की सम विषम परिस्थितियों की चर्चा करते पूरा परिवार उन्हें गौर से सुनता। सेठ का मानना था इन्हें दुनियादारी से परिचित कराने का अनूठा तरीका था बेटा थोड़ा भीरू प्रवृत्ति का था घबरा जाता था बिटिया हिम्मत से सुनती रहती थी। 



बेटी का रिश्ता सेठ ने दूर के एक रिश्तेदार के बेटे से कर दिया लड़का यूनिवर्सिटी मे अध्यापक था देखने सुनने मे बड़ा ही शालीन था।अजय ने चार्टर्ड एकाउंटेंट की परीक्षा उत्तीर्ण कर नौकरी के लिए अमेरिका चला गया।

सेठ सेठानी घर पर अकेले रह गये। दिन भर कुछ काम ही नही पुरानी कोठी मे खोजो तो पचहत्तर काम पर नौकर चाकर करते रहते। दिन यूं ही बीतते जा रहे थे। 


अजय की शादी के लिए भी रिश्ते आ रहे थे।सेठ ने घर पर विचार विमर्श किया और लड़की देखने का दिन तय हो गया।

इकलौती लड़की हैं माता घर संभालती थी जबकि पिता शहर में प्रसिद्ध चिकित्सक थे। सेठ जी की तरफ से सब कुछ ठीक चल रहा था पर एक भय सताये जा रहा था  शादी के बाद अजय अमेरिका चला जायेगा। वृद्ध दम्पत्ति को बच्चों का यहां होना बड़ा अच्छा लग रहा था वे चाहते थे अजय अब यहीं रह जाये। इसी उधेड़बुन मे लगे हुए थे उधर तैयारियां जोरों पर थीं। सब जल्दी जल्दी तैयार होकर होटल मे पहुंच गये। बच्चे सबसे ज्यादा खुश थे खूब दौड़ लगा रहे थे। बात चीत में परिचय लड़के पक्ष से शुरू हुआ मामा मामी चाचा फूफा सभी का बारी-बारी से। अचानक रागिनी के पिता ने कहा सेठ जी बड़े भाग्यशाली हैं आप आपका बेटा अमेरिका मे रहता हैं। सेठ जी अपना गम छिपाये मुस्कुराकर सिर हिलाकर सहमति दी।

अब जब सहमति आगे बढ़ी तो लड़के लड़की को आपस मे बात करने का अवसर दिया गया। दोनो को अलग थोड़ी दूरी पर लाॅन मे बैठने की व्यवस्था थी। 



अजय ने चर्चा शुरू की और रागिनी सुनती रही अजय के पास बहुत कुछ था बतियाने को जवान हृदय तेज धड़क कर सारे भाव उलीच देना चाहता था पर मर्यादा का ख्याल भी था। नारी जिस सफाई से अपने मनोभाव छिपा सकती है वैसे ही दूसरे के मन का पता भी लगा लेती है रागिनी को अजय की बातें पूरी ईमानदार और निष्ठावान लग रहीं थी। रूप रंग भी अच्छा खासा, घर कुल प्रतिष्ठित और संपन्न एक वर के व्यवहार के अतिरिक्त और क्या देखा जाता हैं दोनो एक दूसरे को पसंद थे। दोनो वापस आये अब बड़े बुजुर्ग की बाते सुनने लगे।

बीच बीच मे दोनो एक दूसरे को छिपकर देख लेते जब देखते नजरे मिल जातीं तो हल्के मुस्कुरा देते। अचानक अजय के बहनोई ने छेड़ते हुए पूछा 

"हां भई शादी के कितने दिन बाद वापस जाना हैं।

अब नही जाना है जीजा जी, अजय बोला

मैने और रागिनी ने तय किया है की शादी के बाद हम यहीं रहेगे आप लोगों के साथ अपनों के बीच।

सेठ जी के कानों मे यह शब्द अमृत सरीखे लगे इधर डाक्टर साहब कुछ लेन देन की बात कर रहे थे लाला जी ने हाथ जोड लिए 

अरे यार डाक्टर साब आप हमे ऐसी सुलक्षिणी बहू दे रहे हों वह मेरे बेटे को वापस ले आयी, यह हमारी सबसे बड़ी लक्ष्मी हैं। 

डाक्टर ने उठ कर लाला के दोनो हाथ अपने हाथों मे ले लिए वहां उपस्थित सभी भाव विभोर हो गये।


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:-शशिवेन्द्र "शशि"

रविवार, 13 नवंबर 2022

मुक्ति

 हिन्दु धर्म मे तर्पण और अंत्येष्टि का बड़ा महत्व  है बिना सम्पूर्ण क्रिया के मृतात्मा को सद्गति नही मिलती। अतः लोग अपने प्रियजन की मृत्यु का क्रियाकर्म बड़ी श्रद्धा से कराते थे इसके लिए आवश्यकता होत है ज्ञानी और सदाचारी ब्राह्मण की।

ब्रहंनाथ तिवारी की कई पीढियां घाट पर क्रिया कर्म कराती रही हैं। जब से होश संभाला तो दादा जी के साथ जाना शुरू किया था। दादा के नाम का डंका बजता था पर वो अपने खुद के बेटे के आचरण से नाखुश थे अतः पोते को बचपन से ही सिखाते थे। 



हालांकि गांव के हमउम्र बच्चे ब्रहंनाथ को महाब्राह्मण कह कर चिढ़ाते थे  तीन तेरह का भेद बना कर भी मजाक  करते थे। जब बालक ब्रह्मंनाथ व्यंग्य और अपमान से क्षुब्ध हो जाता तो दादा से शिकायत  करता। दादा समझाते ब्राह्मण कौन है?

जो ब्रह्मा का अंश है औरों को भी ब्रहं का ही अंश मानता है। जब सभी उसीका अंश तो फिर एक का दूसरे से भेद क्यूं।

तुम बताओ जन्म और वैवाहिक बंधन श्रेष्ठ या मुक्ति पाकर आत्मा का परमात्मा से मिलन?

मुक्ति, हर्षित होकर ब्रह्मंनाथ बोले 

और मुक्ति मे माध्यम कौन? 

ब्रहंनाथ चहककर बोलते:- महाब्राह्मण

फिर बड़ा छोटा कोई हुआ क्या।

खिलखिलाते ब्रहंनाथ ना मे सिर हिलाकर दादा से चिपट जाते और खूब सारा प्यार पाते।

दादा के कई चेहरे थे कभी उग्र कभी मद्धम पर कर्म के प्रति न्यायवादिता पर बेजोड़ थे।

गांव मे कई बार विवाद उठा दादा बड़े स्पष्ट थे मृत शरीर की कोई जाति नहीं यदि है तो सिर्फ उसका धर्म अर्थात रीति रिवाज के अनुसार शव की अंत्येष्टि करना ही उचित सम्मान है।

दादा को मरे कई दशक हो गये माता पिता भी गुजर गये समय बदल गया था। लोगो मे भौतिकता और आधुनिकता कूट कूट कर भरी हुई थी। लोग जीवित माता पिता को साथ रखने को राजी नही तो मरने के बाद क्या खर्च करते। जमाना किरिस्तानी सोच का हो गया था।



आमदनी कम हो गई थी घर मे बच्चे और पत्नी कुल पांच प्राणी इस महंगाई मे खर्च चलाना भारी था खेती बाड़ी कोई दूसरा कमाई का श्रोत और नही था।

घाट पर बैठे यही कुछ सोच रहे थे कि बंधू नाई की आवाज से तन्द्रा टूटी

अरे बाबा,सुने वो धर्मशाला वाली बुढ़िया माई मर गई।

बरसों पहले एक बुजूर्ग औरत कहीं से भटकती हुई इस गाँव मे आयी रहने का कोई ठौर नही था तो नदी किनारे एक पुराने जर्जर धर्मशाला में ही ठिकाना बना लिया गाहे बगाहे तिवारी भी दान दक्षिणा का सामान दे आते थे। आज उसकी मृत्यु की खबर पर जाने क्यूं आंखे भर आयीं थी। दोनो धर्मशाला पहुंचे सूरज आसमान मे दो लट्ठ उपर चढ़ आया था। शव को ससम्मान घाट तक ले जाया गया सारी तैयारी हो गई थी, प्रश्न था अब मुखाग्नि कौन दे। 



ब्रहंनाथ ने कुर्ता निकाला जनेऊ और धोती पहने हुए सारी क्रियायें विधिपूर्वक संपन्न की। जन सहयोग से तेरहवीं की विधिवत तैयारी की गई। 

तेरहवीं के दिन ब्रहंनाथ को दादा बरबस याद आ गये "मुक्ति" दिलाने वाला ही श्रेष्ठ हैं

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:- शशिवेन्द्र "शशि"

शनिवार, 12 नवंबर 2022

सीख

अखिलेश के पिता रामबदन मंझोले किसान थे आराम से साल भर का खाना पीना और शेष खर्चे पूरे हो जाते थे । आस पास के 5-10 गांव समाज मे प्रतिष्ठा भी थी।


अखिलेश 12वीं की पढाई पूरी कर चुका था नौकरी हेतु समय की मांग थी की एक प्रतिष्ठित व्यवसायिक कोर्स किया जाये पर कोर्स की मोटी फीस और हास्टल का खर्च कुल मिलाकर 10 लाख पार कर जायेगा। अखिलेश ने परिवार के लोगों को समझाने के लिए कोर्स के फायदे मे खूब कसीदे पढ़े इतना तो कॉलेज की सुन्दर काउंसलर ने भी नही किया था। पिता थोड़ी हीला हवाली के बाद तैयार हो गये पर समझाया  "बेटा रहने मे रहो बहने मे ना बहो"  पर अखिलेश को महंगे कॉलेज से पढाई पूरी करने के बाद कम सैलरी वाली नौकरी मिली थी। शायद मंदी की वजह से, कोई क्या करे जब पूरे विश्व मे ही मंदी हो गई थी।




दूर अहमदाबाद मे नौकरी लगी घर आना जाना कम हो पाता था धीरे धीरे 5 वर्ष गुजर गये शादी हो गई बाल बच्चे भी हो गये। माता पिता भी एक एक कर स्वर्ग सिधार गये थे। गत पांच वर्षों मे अखिलेश का प्रोमोशन तो हुआ लेकन वेतन मे कुछ खास वृद्धि नही हुई। दोनो बच्चो की पढ़ाई और परिवार का खर्च सब मिलाकर हाथ मे कुछ भी न बचता था। एक दिन एक सहकर्मी से चर्चा के दौरान शेयर मार्केट का पता चला हालांकि इस बारे मे थोड़ी बहुत जानकारी पहले से थी पर उसने जैसा बताया वो अलग ही था जैसे वो सैलरी को हाथ भी नही लगाता हर साल विदेश घूमने जाता है। बडा आकर्षक प्रस्ताव है अखिलेश ने कुछ दिन शेयरों का अध्ययन किया फिर लगा दिया दांव। पहले दिन पट्ठे ने 3000 का मुनाफा बनाया। दलाल का कमीशन काट कर भी अच्छा फायदा बन गया और करना ही क्या हैं बस कुछ मिनटों का काम, उसने खुद को समझाया। बस फिर क्या खेल शुरू नित्य प्रति थोड़े बहुत लाभ हानि से घबराना नही है यह तो रोमांच है इस खेल का। बरस बीतते गये अखिलेश का तजुर्बा और लगन उसे आगे बढाती रही। एक मित्र की पार्टी मे जिसने हाल ही मे एक भव्य बंगला खरीदा था।नौकरो के लिए भी ऐसी सुविधाएं जो अखिलेश के अपार्टमेंट्स मे न थीं। 



असंतुष्टि बड़ी खतरनाक हो जाती है जब वह स्व धिक्कार का रूप लेती है व्यक्ति को अंतिम सीमा का उल्लंघन नही करना चाहिए। पार्टी से लौटते हुए उस पर एक ही धुन सवार थी पैसा। कहां से आये पैसा, पूरी रात इस उधेड़बुन मे बीती। सुबह आफिस के रास्ते मे मनी मंत्र का एक वीडियो में वक्ता कह रहा था "यदि आपने अपने पैसे को कम रिटर्न वाली जगह पर फंसा रखा है तो आपको आपकीआने वाली पीढियां माफ नही करेंगी"

य। बात उसके हृदय मे बस गई बाकी के शब्द नही सुने हां खेत और घर की जमीन का क्या ही रिटर्न है। गांव के एक चाचा अच्छी कीमत देने के लिए कह भी रहे थे। आज ब्रोकर की खबर थी देश की एक बहुप्रतिष्ठित कंपनी  "आई पी ओ" लाने वाली थी। बस चाचा को फोन किया और आनन फानन मे सौदा हो गया। जल्दी जल्दी मे जो घाटा हुआ वो शेयर पूरा कर देंगे।

कंपनी का खूब नाम था घाटे मे जाने का सवाल ही नही यही मौका है अभी नही तो कभी नही यही सोच कर अखिलेश ने पूरी जमा रकम और कुछ उधार के पैसे भी लगा दिए। दाम खूब चढे और धीरे धीरे चढते गये। रोज का बढ़ता पैसा आंखो को खूब सुख देता था। पर विश्व से आने वाली खबरें थोड़े-बहुत परेशान करती थीं कोई संक्रामक बीमारी से विश्व मे लाक डाउन लग रहा है। अब इस महामारी का डर भारत मे भी बढ़ गया। यहां भी लाक डाऊन लग गया जो धीरे धीरे बढ़ाकर 3माह कर दिया गया। धंधा आमदनी सब चौपट विदेशी निवेशको के पैसा निकासी से शेयर मार्केट धड़ाम। शायद बंदी के बाद दशा बदले लेकिन कंपनी नये आयाम के लिए इतने बड़े घाटे को बर्दाश्त नही कर पायी और यह नया आयाम बंद करने का निर्णय ले लिया। अखिलेश अपना बहुत कुछ गंवा चुके थे काश पिता की "सीख" मान ली होती


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:-शशिवेन्द्र "शशि"

शुक्रवार, 11 नवंबर 2022

मोल-की :- (एक अनिर्णीत निर्णय की खूबसूरत कहानी) #hindistories

जहां माथे पर कोई कर्ज नही और हरे भरे खेतों मे लहलहाती फसल के साथ ही दरवाजे पर दुधारू पछाही गाय बंधी रहती हो उस किसान के घर का सुख तो देवताओं के स्वर्ग जैसा है। जैताराम चौधरी के 80 किले खेत थे और चार बेटों संग भरा पूरा परिवार। हरियाणे के सुखी मानस मे से एक था वो। बड़े बेटे की दिल्ली मे नौकरी लगी तो वो सपरिवार दिल्ली रहने लगा। दो छोटे बेटे एक साथ ही हरियाणा पुलिस मे लग गये उनका भी शादी ब्याह हो लिया बाल बच्चों समेत वे भी ड्यूटी पर ही रहते। चौथा बेटा जयपाल बहुत मेहनती था पर कम पढ़ा लिखा तो घर और खेत संभालने की जिम्मेदारी उसकी ही थी। उसकी शादी भी नज़दीक में कैथल मे हुई।

नई बहू घरेलु कामकाज से सामंजस्य न बिठा पाई तो कुछ दिनो का टकराव और घर में क्लेश शुरू हो चला। एक दिन वह रहस्मय ढंग से घर से गायब हो गई। कोई सुराग नही कहां गई, बहुत छानबीन हुई पर कोई पता नहीं। बड़ी मुश्किल से उसके मायके वालों और थाने से पीछा छूट पाया था। बेटे के इसी दुख मे जयपाल की मां बीमार पड़ी और उसकी मौत हो गयी। इस पूरे मामले में जैताराम पर कर्ज भी खूब हो गया था। यहां तक की खेत तक बेचने की नौबत आ गई। लेकिन किसी तरह पेट काट काट कर जैता फिर से गाड़ी को पटरी पर वापस ले आये थें। इस मामले को कुछ बरस बीत चुके थे लेकिन अब पूरे इलाके मे यह बात आग की तरह फैल गई। तलाकशुदा जवान बेटा कभी कभी खुद को बड़ा अपमानित महसूस करता था। उसके साथ के सभी लड़को की शादी हो चुकी थी गृहस्थी मौज मे चल रही है । यहां ताने और व्यंग्य सुनते सुनते जयपाल से ज्यादा जैता थक चुके थे।

इलाके मे वैसे भी लड़कियों की संख्या कम थी कोई बेटी देने को राजी नहीं था। जवान लड़का उसकी रोटी पानी कौन करेगा, यह सोच कर चौधरी ने कई जगह उसकी शादी की बात चलाई पर परिणाम सिफ़र रहा। थक हार कर एक बिचौलिए से संपर्क किया और उसके जरिए पूरब से एक लड़की खरीद कर जयपाल की शादी करा दी गई। लड़की के माता पिता से संपर्क कर बिचौलिए यह काम आसानी से करा देते थे और इधर के लिए यह आम बात थी। नई बहू के गांव मे आते ही उसे गांव की रीति के अनुसार नाम मिल गया "मोलकी"

गांव मे लिंगानुपात कम होने की वजह से अक्सर बहुएं बाहर से खरीद कर लायी जाती थीं।

इस मोलकी नाम के पीछे बड़ा खास उद्देश्य था जैसे ब्याह कर सम्मानित तरीके से लाई गई और मोल खरीदी गई मे सरे आम भेद बताना। भीड़ मे अपने पराये का अंतर बताना और साथ ही साथ अगले को भी उसकी औकात मे रखने का एक तरीका भी था। नई बहू की भाषा और व्यवहार दोनो बिलकुल अलग था। 

वो गुमसुम सी रहती थी किसी बात पर कभी कोई आपत्ति नहीं करती। यूं लगता जैसे वो किसी बात से अवाक रहती थी किसी उलझन में लगती थी फिर भी बात व्यवहार मे बहुत शांत रहती थी। जल्दी ही उसने एक बेटे को जन्म दिया जो हलका सांवला सा था पर बड़ी बड़ी आंखो वाला बड़ा ही आकर्षक लगता था। उसका नाम किशोर रखा गया। धीरे धीरे समय बीतता गया लड़का बड़ा होनहार था वो कभी भी घरवालों को शिकायत का मौका नही देता जबकी जैताराम के बाकी नाती पोते अपना रास्ता भटक चले थे जो न भी भटके वे औसत दर्जे के ही थे। किशोर दसवीं मे भी अव्वल दर्जे मे पास हुआ था जिले मे उसके नाम की बड़ी चर्चा थी मजिस्ट्रेट ने खुद उसे सम्मानित किया था। अबकी बार हरियाणा राज्य की सरकार ने घोषणा की थी 12वीं की परीक्षा मे प्रथम तीन परीक्षार्थियों को विशेष पुरस्कार दिये जायेंगे। आज बारहवीं के परिणाम आने वाले थे। सभी परीक्षार्थी थोड़े बहुत नर्वस थे जाने क्या होगा। किशोर इन बातों से दूर घर और खेती के कामों मे मां के साथ लगा हुआ था। गेहूं की नयी फसल का भूसा आ गया था सुबह से उसे ढो ढोकर मां बेटा किनारे भैंसों के चारे वाले कमरे मे रख रहे थे। लगभग पूरा दिन इसमें बीत चुका था शाम के करीब चार बजने को आये किशोर भैंसो को चारा डालने जा रहा था की उसका एकमात्र दोस्त अजेश दूर से ही उसे आवाज लगाता हुआ दौडा चला आ रहा है। अरे भाई कमाल हो गया है तू टाॅप कर गया है। अजेश ने अखबार निकाला और परिणाम दिखाया किशोर ने मां की तरफ देखा गौरवान्वित मां सजल नेत्रों से उसे देख रही थी। झट उसने मां के पैर छुए, शाम तक दरवाजे पर लोगों का जमावड़ा लग गया डीएम स्वयं आने वाले थे।

बरामदे मे बैठे मजिस्ट्रेट ने किशोर को शाबासी देते हुए कहा आज से एक हफ्ते बाद मुख्यमंत्री तुम्हे सम्मानित करेंगे और जिले को जोड़ने वाली तुम्हारी गांव की सड़क का नामकरण तुम्हारे नाम पर होगा। यह रहा सहमति पत्र इसे भर दो बेटा।

किशोर ने भर कर पत्र वापस लौटाया तो मजिस्ट्रेट ने फार्म चैक किया तो समझाते हुए बोले बेटा लगता है नाम गलत भर दिया है। तुम्हारा नाम तो किशोर है न?

नहीं सर मेरा वास्तविक नाम इस गाँव मे यही है "मोलकी का"

मतलब, मजिस्ट्रेट के मुंह से निकला

मतलब ब्याह के लिए मोल खरीदी गई औरत से जना गया बच्चा जो की मै हूं, आलोचनात्मक और दर्द भरी मुस्कान के साथ किशोर बोला।

पूरी भीड़ यह बातचीत सुनकर निस्तब्ध निरूत्तर खडी थी जबकि थोड़ी दूरी पर "मोलकी" अपनी बहुप्रतीक्षित जीत पर मंद मंद मुस्कुरा रही थी।

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शशिवेन्द्र "शशि"

SHASHIVENDRA SHAHI

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गुरुवार, 10 नवंबर 2022

जीउतिया

 जीउतिया

जीवित्पुत्रिका व्रत में मां निर्जल व्रत रखकर संतान की लंबी आयु एवं स्वस्थ, समृद्ध जीवन की कामना करती हैं। इसे मध्य पूर्व भारत मे "जीउतिया" के नाम से जाना जाता है। बल्लभ की मां हर साल श्रद्धापूर्वक यह व्रत करती थीं। बड़ी मान और मनौतियों के बाद इकलौता पुत्र पैदा हुआ, बचपन से ही उसकी इच्छा सेना मे जाने की थी हालांकि माता का विरोध था लेकिन इकलौता पुत्र अपनी आकाक्षांए पूरी करवा कर ही लेता हैं। 

भर्ती रैली मे बल्लभ भी चयनित हुये। पिता तो समझते थे कि जीवन मृत्यु तो विधाता के हाथ मे हैं लेकिन मातृभूमि की सेवा सबसे बड़ा पुण्य हैं। वो बड़े खुश थे पर मां इन बातों को नही समझती और बड़ी अनिच्छा से प्रशिक्षण पर जाते पुत्र को विदा किया था।


जोशीले बल्लभ ने कड़े प्रशिक्षण हेतु खुद को तैयार किया और सफलतापूर्वक प्रशिक्षण पूरा कर भारत चीन सीमा पर तैनात हुए थे।

पठारी क्षेत्र की प्रतिकूल जलवायु के बावजूद सैन्य खान पान और अनुशासित शैली से स्वास्थ्य ठीक था। 1962 के बाद से अब तक चीन से हमारी सरकार के संबंध औसत ही रहें अचानक जब पिछले कुछ वर्षों मे सीमा पर चीनी सक्रियता बढ़ गई है तो सैन्य टकराव के आसार बढ़ने लगे। अतः परिणामस्वरूप भारत सरकार ने सीमा पर चौकसी बढ़ा दी सीमा का स्थायी रेखांकन न होना भी टकराव के मुख्य कारणों मे से एक था।

लद्दाख की एक चौकी "तेनांगसा" पर 20 जवानों की एक सैन्य टुकड़ी तैनात थी।



रात के लगभग दो बजे होगें, एक सिपाही अभय बोला दो तीन दिनो से चीनी पक्ष मे कोई हरकत नही है बिल्कुल शांत हैं, पता नही लौट गये क्या?

शायद उन्हे समझ आ गया है की पडोसियों से मिलकर रहने मे ही भलाई है दूसरे सिपाही गोतराम ने कहा।

नही जवान, चीनी दुश्मन और पहाड़ी नदी का कभी भरोसा नहीं करना, मुत्थू उस्ताद अपनी टूटी फूटी हिन्दी में बोला

(फौज मे जवान टुकड़ी मे अपने वरिष्ठ सिपाही को उस्ताद बोलते हैं)

एक सीमित हंसी के बाद पहरे वाले जवानों के अतिरिक्त बाकि सब थोड़ी झपकी लेने लगे, करीब आधे घंटे बाद हुई चहल पहल से उनकी नींद टूटी और सामने नदी पार कर 50 से ज्यादा चीनी आते दिखाई दिए।

यह इनके हाथों मे क्या है किसी ने धीरे से कहा, हथियार?

नही अरे नही, जवान मेहरसिंह ने फिर समझाते हुए कहा

सीमा समझौते मे हथियार साथ न रखने की बाध्यता है।

फिर हल्की रौशनी मे देख पाना भी मुश्किल हो रहा था।

थोड़ा नजदीक आने पर पता चला डंडे और राॅड है।

मुत्थू नफरी का उस्ताद था झट रेडियो पर पड़ोसी टुकड़ी को इत्तला दी गई इतनी देर मे चीनी और नजदीक आ गये।

मुत्थू अंग्रेजी का जानकार था दो सैनिको को साथ ले बात करने को आगे बढ़ा पर चीनी सैनिक ने आव देखा न ताव और बिना एक भी शब्द बोले प्रहार कर दिया।

एक डंडा मुत्थू के सिर पर लगा वो वहीं जमीन पर गिर गया बाकी भारतीय सैनिक अब नहीं रूक सकते थे। चीनियों पर टूट पड़े पर अब संख्या और कम रह गई जबकि चीनी पचास से ज्यादा थे और डंडो से लैस।

अरे देख क्या रहे हो मारों इन्हें, गोतराम ने गाली देते हुए ललकारा फिर क्या हिन्दुस्तानी जवान चीनियों पर वीरभद्र की भांति टूट पड़े।



इन चीनियों की इतनी औकात मेहरसिंह दहाड़ा, हर भारतीय सिपाही 4-5 चीनियों से जूझ रहा था। कुछ को नीचे बहती नदी मे फेंका गया किसी की गर्दन तोड़ी गई बल्लभ के कबड्डी और कुश्ती वाले दांव भरपूर काम आये। 

एक चीनी की गर्दन पर लात रख दी दो को कांख मे दबा लिया, खाते पीते घर का अकेला लड़का चाल चलन से भी ठीक और बजरंगी की भांति शक्तिशाली पट्ठे ने दर्जन भर से ज्यादा दुश्मनों को लपेट दिया पर संख्या मे अधिक चीनियों ने भी खूब उत्पात काटा। थोड़ी ही देर बाद सारे चीनी खामोश कर दिए गये और बल्लभ को मिलाकर भारतीय पक्ष से भी मात्र तीन लोग बचे थे। चोट और थकान से मूर्छित होकर जमीन पर पड़े जवानों की मदद को दूसरी नफरी पहुंच चुकी थी। घायल तीनो जवानों को तुरंत अस्पताल भेजा गया और शहीदों के शवों को मुख्यालय ले जाने का इंतजाम किया गया।



मां अगले दिन सुध बुध खोयी सी अस्पताल के अंदर पहुंची जहां घायल बल्लभ सोया हुआ था मां ने जीउतबंधन बाबा का धागा उसके माथे पर रख दिया। 

रोते हुए बोली "हमरे बच्चा के रक्षा जीउतबंधन बाबा करिहें" संघर्ष वाली रात की शाम को ही जीवित्पुत्रिका व्रत मे बरियार वृक्ष पूजकर आयी थी। उसमें ईश्वर से प्रार्थना की थी

हे बर, हे बरियार जाके भगवान श्री रामचंद्र जी से कहो, बल्लभ के माई "जीउतिया" व्रत रखी हैं

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 शशिवेन्द्र "शशि"

बुधवार, 9 नवंबर 2022

व्यथा

 व्यथा

अंजू की खांसी रूकने का नाम न ले रही थी छोटी बहन मंजू ने दवा पिलाई पर बेअसर कोई फ़ायदा नहीं। कल भी दिन भर खांसती रही यह रोग का आखिरी चरण हैं। डाक्टर ने भी घर पर ही रखने की सलाह दी है।

लाला अमरपाल के दो बेटियों मे मंजू छोटी थी जन्म के समय ही मां के गुजर जाने के बाद जब से होश संभाला बड़ी बहन अंजू ही उसकी देखभाल करती रही थी। 

लाला व्यापार के चक्कर मे हफ्तों बाहर रहते थे तब दोनो बहनें एक दूसरे का सहारा बन दिन गुजारती थीं।

समय बीता अंजू की शादी हुई शैलेन्द्र बड़े हंसमुख और खुशमिजाज थे खूब ठिठोली करते थे। बेटे बेटियों से भरे पूरे इस खुशहाल परिवार मे बस मां की कमी झलकती थी उनकी याद बरबस आंखे नम कर जाया करती। जब लाला की भी आंखे भर जाती तो अंजू संभालती बाबा पुरूष भी कहीं रोया करते है रोने पर तो महिलाओं का एकाधिकार हैं इस ठिठोली से सब हंस पडते। लेकिन जबसे अंजू को फेफड़े के कैंसर का पता चला है पूरे घर की हंसी गायब हो गई है। रही सही कसर आज शैलेन्द्र की मां के फोन ने पूरी कर दी। बहुत बुरा भला कहा, निष्ठुर कह रहीं थी कि बीमार लड़की से शादी करा दी, भला ऐसा कोई कैसे कह सकता है। उसे क्या पता पिता को किस कद़र अजीज होती हैं बेटियां और भला ये परमात्मा को क्या हो गया है। हमारे हिस्से मे सिर्फ घोर दुख और अपनों का विछोह ही लिखा हैं। 

ऐसा भी कहीं होता है क्या कोई अपनी बेटी को कैंसर जैसी बीमारी से.... यह बोलकर लाला फफक कर रो पड़े थे अचानक कमरे मे से अंजू की कराहती आवाज आयी बाबा पुरूष भी कहीं....


हां हां चल मै रो थोड़े रहा हूं, लाला झट आंसू पोछते हुए उसके कमरे की तरफ भागे। एक बहादुर योद्धा की तरह उसके सामने खड़े हो गये। उसने क्षण भर देखा और कहा बाबा शर्त लगा लो रो रहे थे आप। इस कला में विधाता ने स्त्री को एकाधिकार दिया है मां और बेटी के तौर पर दोनो ही समान रूप से अपने पुत्र और पिता के गूढ़तम मनोभावों को ताड़ जाती हैं। पुरूष इन दोनो से ही अपनी भावनाएं नहीं छिपा सकता हैं।

मां जी क्या कह रही थी बाबा?

अब तो लाला का मन चीत्कार उठा एक बच्चे  की भांति जोर जोर से रोने लगे। अंजू ने अपना बायां हाथ सिर झुकाए पिता के कंधे पर रखा "ठीक ही तो है बाबा उनका इकलौते लड़के का जीवन अधर मे हैं हर मां ऐसा ही सोचती हैं मुझे भी तो अपने बच्चों की ही चिंता हैं"। लाला के मन में सैकड़ो प्रश्न थे उससे लड़ने का जी करता था सामान्य दिन होते तो भयंकर तर्क और तकरार होती पर आज, वो भी अपनी ही बिटिया से जो कुछ दिनों की..  खैर, आंसू पोछ कर आगे बढ़ लिए।

उसने फिर टोका, बाबा बताओ तो क्या  कह रही थीं?

लाला टालना चाहते थे पर उसकी जिद के आगे विवश थे। गहरा दर्द उस धधकती आग की तरह है जो फौलाद को भी आकार बदलने पर मजबूर कर देती है इसी तरह लाला एक ही सांस मे पूरी बात बोल गये,

बोले उसकी मां अपने बेटे की जिन्दगी खराब करने का मुआवज़ा चाहती हैं वो चाहती है तेरी बहन शैलेंद्र से शादी करले। बच्चों का वास्ता दे रही है अंजू मौन हो गयी उसे एक हिचकी सी आई और आंखे खुली रह गई थी लाला जोर से चीखे लेकिन प्राणपंछी अंतिम प्रयाण को निकल चुका था।

अंत्येष्टि के क्रिया कर्म की समाप्ति के बाद पुनः शैलेन्द्र  की मां आ धमकी लाला सिर पर हाथ रखे किंकर्तव्यविमूढ़ बैठे थे। समधन ने लाला से पूछा बताओ कौन करेगा इन बच्चों की देखभाल ।

मै और आप तो टूटे डाल के पंछी आज गिरे या कल कोई ठिकाना नहीं फिर इनका ठौर क्या रहेगा कौन थामेगा इनका हाथ।



मैं थामूंगी अब मेरी जिम्मेदारी हैं ये, बातें बढता देख मंजू कमरे से बाहर आयी, आरोप प्रत्यारोप का दौर रूक गया। उसके इस आश्वासन पर सभी खुश थे सभी को उसके मुख पर हर्ष प्रतीत हुआ जबकि पिता की चिंता अंजू के चेहरे की हल्की मुस्कान के पीछे छिपी "व्यथा" 

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सोमवार, 7 नवंबर 2022

मानववाद

असी पंजाबी ते तुस्सी कौन? 

कपूर साब के लिए यह पसंदीदा डायलॉग था। उनका पूरा नाम जसवंत कपूर था। अमृतसर के एक गाँव से आये थे पिता अंग्रेजो की सेना मे थे तो घर का अनुशासन कड़ा रहा। वहीं से शिक्षा पूरी करने के बाद एक सरकारी महकमें मे ही पोस्टिंग हो गयी पर ट्रांस्फर सरकारी नौकरी मे होने वाला एक भयानक हादसा हैं। दुर्भाग्य से यही इनके साथ भी हुआ और वे शीघ्र  ही दिल्ली भेज दिए गये। दिल्ली के सरस्वती विहार मे एक अपार्टमेंट् खरीद कर सैटल होना पड़ा। 

जब से होश संभाला था एक ही ख्वाहिश थी आस्ट्रेलिया जाने की हालांकि खुद तो कभी अवसर नही मिला बस यह सपना अपनी इकलौती बेटी गोल्डी पर लाद दिया। सारी पुस्तैनी जायदाद और जीवनभर की कमाई जोड़कर बेटी को पढ़ने भेज दिया। 

सरकारी सेवा से रिटायर होने के बाद अपनी रेजीडेंशियल सोसाइटी के अध्यक्ष चुन लिए गये। अब सोसाइटीज के चुनाव ठहरे पक्षपात से भरे हुए और इनमे हर तरह के दांव तो चले ही जाते हैं, मसलन क्षेत्रवाद, भाषावाद, जातिवाद। कपूर साब भी इससे अछूते नही रहे बल्कि उनकी मान्यता और प्रबल हो गयी थी कि जैसे भारत के पश्चिमी सीमा की रक्षा हेतु इस प्रदेश ने सबसे ज्यादा बलिदान दिए हैं अतः पूरे भारत को यहां के निवासियों को सर्वोच्चता का सम्मान एक टैक्स की भांति देना चाहिए। समय के साथ उनका यह क्षेत्रीय अहंकार बढ़ता गया और अब तो ऐसे पारखी हो चले थे कि सामने वाले के बात करने के लहजे से झट उसका जन्म और पालन पोषण का स्थान तक बता देते थे।

इस बार भी सोसाइटीज के चुनाव घोषित थे पर मुसीबत थी प्रतिद्वंदी राम प्रकाश जो की उत्तर प्रदेश से था। उसने बोली भाषा और क्षेत्रीय समानता दिखा कर सारे मध्य और पूरब भारत से आये सोसाइटी रेजिडेंट्स को अपनी तरफ मिला रखा हैं। पाजी अलग ही तरीके से नमस्कार करता है जाने किस ग्रह की भाषा मे दांत निपोरकर बात करता हैं।

कपूर साब को चुनाव से पहले ही नतीजों का पता था लेकिन हथियार क्यूं डाला जायें जो होगा देखा जायेगा, अंत तक लडेंगे चुनाव मे फैसला तो वोट ही करते हैं



दोपहर तक ही मतदान के नतीजे आ गये कपूर साब चुनाव हार गये। पिछले कई वर्षों से "आर डब्ल्यू ए" के अध्यक्ष रहे अब रिटायर भी हो चुके थे खालीपन उस कांटे की तरह होता है जो अंदर ही अंदर चुभता रहता है अब पूरा दिन घर मे ही बीतने लगा कुछ दिन तक तो ठीक चला लेकिन धीरे धीरे अब कुढ होने लगी थी बात बात पर गुस्सा हो जाते। कोई कामवाली बाई हफ्ते भर से ज्यादा ना टिकती या तो छोड़ देती या भगा देते थे।

गोल्डी को पढाई पूरी करने के बाद नौकरी मिल गई थी और वो अगले महीने आ रही हैं खबर यहां तक तो ठीक थी लेकिन उसने शादी कर ली हैं।

कब और किससे ? कपूर साब ने चौंक कर पूछा

लड़का साफ्टवेयर इंजीनियर है, बिहार से है उसका नाम अमित झा।



अंतिम शब्दों ने जैसे कपूर साब पर बिजली गिरा दी हो फोन कट कर दिया था, समझ नही आ रहा था
 क्या करेंगे कैसे, किस किस को समझायेंगे

नाती नातिन कैसे दिखेंगे

क्या बोलेंगे कैसे बोलेंगे

हमारी बेटी तो गोरी सुन्दर है वो जरूर सांवला होगा कैसे अपने मे  मिलायेंगे।

साथ के कितने लोगो पर क्या क्या कटाक्ष नही किया था शर्मा की बेटी ने जब शादी की थी तो बहाने से उनके घर का पानी तक छोड़ दिया था।

इसी उधेड़बुन मे लगे रहे पूरी रात नींद नही आयी थोड़ी देर के लिए आयी तब तक सुबह हो चली थीं बाल्कनी मे आकर खड़े हुए सामने पार्क मे रामप्रकाश और कुछ लोग योग कर रहे थे।

अचानक रामप्रकाश से नजर मिली उसने अभिवादन किया कपूर साब ने भी हाथ उठा कर उत्तर दिया। उसने नीचे आने का इशारा किया झट चप्पल पहनी नीचे चले गये बिना किसी अंतर्विरोध के।

वहां और लोग भी थे उनके साथ थोड़ी देर तक बाते हुई लौटने तक कपूर साब के मन के सारे वाद मिट चुके थे सिर्फ एक बच रहा था "मानववाद"

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शशिवेन्द्र "शशि"

उत्पीड़न:- रफा दफ़ा

जब शहर मे मोहन की क्लर्क के तौर पर नौकरी लगी तो उन्होने अपने बचपन के मित्र नेवास को नगर निगम मे नौकरी दिलाकर उनके इस अहसान चुकाया था। घर के इकलौते मोहन दशको पहले जब नौकरी की तलाश मे इस शहर में आये तो उनकी बूढी मां समेत खेतों और पशुओं की देखभाल करते थे नेवास। शादी ब्याह से लेकर तीज त्यौहार तक सब कुछ मे भाग लेते थे दोनो के परिवार, यहां पराये शहर मे दोनो ही एक दूसरे के असल संबंधी थे हालांकि यह रिश्तों का नही वरन नेह का नाता था।

गांव मे मोहन का दूध का पैतृक व्यवसाय था जो उनकी पीढियों से यह काम जमाया गया था जबकि नेवास गांव के अनुसूचित जाति से थे। शहर मे मां की अंत्येष्टि के बाद जब मोहन ने तीर-धनुष लिया तो उनको किसी और को छूना आदि निषेध था तब नेवास ने घर के दूसरे मुखिया के तौर पर सहयोग किया और जब निवास की पत्नी गर्भ से थी तो मोहन की बीबी ने जेठानी के तौर पर सारा भार अपने कंधे पर ले लिया। दिन राजी खुशी बीतते जा रहे थे दोनो के ही एक एक बेटे थे जो बड़े हो चले थे। निवास का बेटा अनिरुद्ध कॉलेज मे शिक्षक के तौर पर भर्ती हुआ था अच्छी तनख्वाह मिली तो चलने के लिए एक मोटर कार ले आया नौसिखिए को अभी तीसरा दिन ही था स्कूल मे गाड़ी से जाने का प्रभाव भी अलग वापस लौटते हुए मोहन के बेटे आर्यन के जिम के आगे खडी कुछ गाडियो को ठोक दिया। नौजवान खून उपर से ग्राहको का रिपेयर के लिए पैसे मांगने का दबाव होने पर आर्यन अकारण हुए इस नुकसान से आग बबूला हो गया उसने अनिरुद्ध को खूब खरी खोटी सुनाई, अपराध बोध मे घबराया घर का इकलौता अनिरुद्ध ऐसी बातें सुनने का आदी न था उपर से शिक्षकपद के सम्मान को धक्का लगने का अंदेशा और सरेआम हुई बेइज्जती वो बर्दाश्त न कर पाया।

तैश मे भरकर बोला कितना पैसा हुआ बता, अभी दे देता हूं।

आर्यन भी गुस्से मे भर गया था सोचा इसे अब छोटे बड़े का लिहाज भी नही रहा जरूर इसे सबक सिखाना पड़ेगा, उसने जोर से अनिरुद्ध का कालर पकड़ कर आगे की तरफ खींच लिया और दोनों में हाथापाई शुरू हो गया थी शोर सुनकर भीड़ जुट गई ज्यों मीठेपन से चींटिया बरबस  खींची चली आती है।

टकराव बढ़ा तो जिम् वाले आर्यन और उसके साथियों ने कोमल काया वाले मास्टर जी को बुरी पीट दिया। अनिरुद्ध किसी तरह से जान बचाकर भागा और थोडी दूर जाकर अपने तथाकथित जातीय व्हाटसप ग्रुप के एक नेता को मदद के लिए फोन किया। दरअसल नेता जी बड़े परोपकारी थे पहली मुलाकात मे ही सहयोग का वादा किया था। बोले जाति के किसी व्यक्ति पर होने वाले अत्याचार पर पीछे नही हटेंगे चाहे सर क्यूं न कटाना पड़े।थोड़ी देर मे ही जिम के बाहर भीषण संघर्ष शुरू हो गया कहीं कांच टूटा किसी को चोटें आयीं। गुस्साई भीड़ ने कार और जिम को भी नही बख्शा नजदीकी रेहड़ी खोमचेवालों पर भी जमकर गुस्सा उतारा गया।

मामला थाने पहुंचा विरोधी को ठीक से सबक सिखाने का प्रण किये अनिरुद्ध को नेता जी की सलाह पर हरिजन उत्पीडन एक्ट बिल्कुल सही दांव लगा।

नेता ने थाने की सेटिंग की और मात्र 50हजार मे ही आर्यन सलाखों के पीछे। जरूर नेता ने बड़ी सिफारिश की थी अन्यथा दारोगा ने 2 लाख रूपये की मांग की थी।

इतनी ही देर में दूसरे पक्ष के लोग भी आ गये जमकर नारेबाजी शुरू हुई परन्तु जिन्दाबाद मुर्दाबाद के नारों के बीच भी लोगो का सहयोगात्मक रवैया बना रहा कोई व्यक्ति किसी भी पक्ष से नारे लगा लेता था आवाज कम होने पर सामूहिक नारेबाजी होती थी। इस जीत के तुरंत बाद आयोजन हेतु नेता के सुझाए ठिकाने पर मुर्ग और दारू की दावत दी गई, खर्चा पहली बार शराब चखे अनिरुद्ध के माथे आया तक़रीबन 50 हजार और देने मे ही निपटान हो पाया। इंसान अपमान और सम्मान खातिर कभी भी धन की परवाह नही करता सीमा से बाहर जाकर खर्च करता है।

देर रात खबर मिली तो नेवास को साथ ले मोहन थाने पहुंचे, थानेदार की मिन्नते, मान मनौवल सब बेअसर क्यूंकि अब तो जमानत कोर्ट से ही मिलेगी और यह रात तो कैदी की जेल में हीं बीतेगी।

यहां अनिरुद्ध का मोबाइल भी बंद आ रहा था दोनो वहीं थाने के कैम्पस मे ही बेंच पर बैठे रहे जैसे इन दोनो के जन्म पर अस्पताल परिसर मे बैठना पड़ा था।

सुबह जमानत के कागज तैयार हुए दोनो अपमानित युवक अपने अपने घर पहुंचे अपना निर्दोष होना और दूसरे का सारा दोष नमक मिर्च लगाकर बताया। माता का हृदय वात्सल्य की आग पर सहस्रों गुना तेजी से पिघलता है फिर वो गलत सही सब कुछ बहा ले जाता है। बरसों का प्रेम, सहयोग, समर्पण और एक दूसरे की खातिर रतजगे सब कुछ भूलकर दोनो महिलाओं मे खूब झगड़ा हुआ एक दूसरे को नीचा दिखाने हेतु दोनो ने अपनी अपनी सास और गांव से दी गई सूचनाओं का भी जमकर प्रयोग किया। जातिगत टिप्पणी, पुरखों के काम काज आदि कुछ भी शेष नही बचा। इस बीच मुहल्ले वालों को भी खूब मसाला मिला तीन दशकों से परिवार की तरह रहने वालों मे टकराव का सुख भला कौन जाने देगा।

इधर डीएस पी कार्यालय के बाहर दोनो बुजुर्ग चुप बैठे थे समय बिताने के लिए बीडी सुलगा सुलगा कर अपनी झुंझलाहट को मिटने की कोशिश कर रहे थे 

हालांकि साहब तो आज सुबह 10 बजे ही आ जाते है लेकिन नौसरिया चौकी पर एक जातीय संघर्ष हो गया है जिसमें अनुसूचित जाति के एक लड़के को बहुत मारा गया है। वह अस्पताल मे जिंदगी और मौत से जूझ रहा है। पहले साहब उसी के परिवार से मिलेंगे, सिपाही ने कहा था।

कहीं आप जिम वाले झगड़े की बात तो नही कर रहे :- नेवास ने टोका

हां वही, क्या हुआ था सुना हमारी जाति के लड़के को बहुत मारा है (सिपाही ने खैनी रगडते हुए कहा)

नहीं साहब, दो चचेरे भाइयों मे झगड़ा हुआ गलती से वे दोनों मूर्ख थाने आ पहुंचे :-मोहन ने समझाते हुए कहा

इतनी देर मे रौबदार अंदाज मे काला चश्मा लगाए डीएस पी जतनसिंह आ गये थे। आते ही उन्होंने दोनों को अपने सामने बुलाया

हमारा कोई उत्पीड़न नही हुआ है साहेब, यह तो एक घरेलु झगड़ा है जिसको हम बरसो से ऐसे ही आपस मे बात चीत से ही सुलझा लिया करते हैं आप को कष्ट हुआ हमें माफ करें ( नेवास ने हाथ जोड़कर डी एस पी से निवेदन करते हुए कहा)

कृप्या इसे यही खत्म करें दोनो मित्र हाथ जोड़कर बोले, सिंह साहब प्रोन्नति से आये तजुर्बे वाले अधिकारी थे उन्हें हर दौर का असल तजुर्बा  था वो झट सारा माजरा समझ गये। तत्काल उन्होने सबके लिए चाय मंगाई अपने दौर की कुछ पुरानी बातें शुरू हुई और हंसी के कहकहे के साथ केस रफा दफा हो गया।

ट्विटर #Ssps96 

:- शशिवेन्द्र "शशि" 

रविवार, 6 नवंबर 2022

अधूरा वादा: संस्मरण

"भरारा" स्टेशन पर गाड़ी आज थोड़ी ज्यादा देर तक रूकी, नीलेश खिड़की से अपने गांव जाने वाले रास्ते को निहार रहा था। नरकट और सरपत के झुरमुटों से ढकी पगडण्डी और हल्की हवा से हिलते पत्ते जैसे सिर हिला हिला कर उसको विदा कर रहे हों

बरसों पहले पिता जी वहीं एक छोटी सी गुमटी पर इंतजार करते हुए मिलते थे, कुर्ता पाजामा पहने, पान से लाल होंठ मुस्कराते हुए, चरण स्पर्श करने के बाद वहां जुटे लोगों का अभिवादन और फिर बाप बेटे अपनी पुरानी बुलेट पर गांव तक उस पगडण्डी का 4 कोस का सफर लचकते हिलते डुलते पूरा करते थे, पहुंचने तक सांझ हो जाती थी, गाड़ी से उतरते ही ओसारे मे लालटेन जलाती मां दीखती पर घर मे घुसने से पहले कुल देवी को प्रणाम करके ही आगे बढ़ना होता था, मां आगे बढ़कर आंचल से ढक कर ढेरों आशीर्वाद देते हुए अंदर ले जाती थी।

बातें शुरू होती तो खाते-पीते, सोने तक खूब बातें पिछली पुरानी, विस्मृत, शरारती, ठिठोली खत्म ही न होने वाली पर पिता जी के सामने गंभीरतापूर्वक फिर जाने कब नींद आ जाती और सुबह नींद खुलती तब तक पूरा गांव जग जाता था।

पूरे घर मे उत्सव का माहौल रहता बाहर से मित्र और संबंधी भी मिलने आते थे, कुशल क्षेम के साथ ही दावत पर भी बुलाया जाना लेकिन इतने दिनो तक शहर का खाना फिर मां के हाथ के खाने का मौका कौन छोड़ दे।

सीधे मना भी नही कर सकते सो रोज मां को दो तीन लोगो के लिए अतिरिक्त खाना बनाना पडता था।

मां खुश रहती थीं, पूरा घर पुलकित रहता था लेकिन न जाने क्यूं छुटटियों के दिन जल्दी बीत जाते और लौटने की तैयारी शुरू हो जाती अभी तो ठीक से बातें भी ख़त्म नही हुई, वहां मंदिर मे जाना था, मामा के घर भी जाना है।

मां अबकी बार कैसे होगा लेकिन अगली बार जब आउंगा तब जरूर चलेंगे, यही अधूरा वादा हर बार करके नीलेश लौटता था मां चुप रह जाती थीं। अब जबकि बहुत कुछ बदल गया, ना पिता जी रहे ना ही वो गुमटी, रह गया तो सिर्फ नीलेश का बहुप्रतीक्षित वादा, वो भी आधा, अधूरा, अपूर्ण..........

ट्विटर #Ssps96

 :-शशिवेन्द्र "शशि"



द्रोण पुस्तक के चतुर्थ सर्ग से

ये धृष्ट जयद्रथ खड़ा हुआ  अपने दोषों से सजा हुआ  थी कुटिल चाल दिखलाई तेरे सुत की मौत करायी । सम्बंधी, नही क्षम्य है ये आगंतुक नह...