अपने दोषों से सजा हुआ
थी कुटिल चाल दिखलाई
तेरे सुत की मौत करायी ।
सम्बंधी, नही क्षम्य है ये
आगंतुक नही गम्य है ये
इसको परिणाम दिखाना है
यमलोक इसे पहुंचाना है।
तो तान शरासन हे अर्जुन
क्षत विक्षत इसे अभी कर दे
चल बान मार कर राक्षस को
इसके खूं से कुरूक्षेत्र रंग दे।
अभिमन्यु न सिर्फ भागिनेय मेरा
वो प्यारा शिष्य भी मेरा था।।
तु जनक तो हूं मैं उसका मामा
दो माताओं सम आंचल मेरा था।।
चक्रव्यूह रचा द्रोण ने जब
था कुटिल क्रुद्ध राजाओं से
उसमें कुंठा थी भरी इतनी
क्या प्राप्त उसे विधवाओं से।।
यूं लिए हलाहल कुंठा का
वो राज कुटुंब में बसता था
उसके के चरणों में शीश धरे
राज समाज सब रहता था।।
उसी राज कुमार का उसने
भीषण आखेट कराया है
शावक वधने की खातिर
गुरू का धर्म लजाया है।।।
एक वीर साधने में इनके
सब छक्के छूटे जाते हैं
खड़ग चलाते पीछे से
हितैषी तेरा बताते हैं।।
सब नियम ताख पर रख
उस बालक से लडे सात
इक के वश था नही वीर
कायरों की क्या ही बिसात।।
जिस घर का राजपुरोहित था
उस घर को वेध दिया उसने
सादर ही शीश जो झुकता था
झुकने पर काट लिया उसने।।
अब शीश कटेंगे कुरूओं के
संबंधी के या गुरूओं के
एक ही धर्म निभाना तुम
अरि का सर्वस्व मिटाना तुम।।
जी करता कालरूप धर लूं
पी जाऊं पाप धरा का सब
है क्षुब्ध चित्त मेरा इतना या
नरसिंह रूप धरूं क्या अब।।
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