रविवार, 15 दिसंबर 2024

पकड़ी का पेड़:- धरोहर

 


मेरे गांव मे एक पुराना 'पकड़ी' का पेड़ है जो हमारी कई पीढियों से यूं ही अडिग अचल खड़ा है। वो मेरे गांव के पश्चिमी छोर पर मौन खड़ा सैकड़ो पंक्षियों का बसेरा है। छोटे बड़े किसान अपनी फसल की मड़ाई करते हैं वहां उसने देखा है अनगिनत बदलती हुई ऋतुएं, बदलते हुए मुख्तार और अप्रतिम भाईचारा ।

उसने देखा है 'कर्बला के मेले' में ताजिए के पास ढोलक बजाता संदीप, जलेबी बनाते पुजारी, सब्जी बेचते रामकिशुन और कागज के बनावटी घोड़े को नचाते जवाहर और भी ऐसे अनेकों लोग जो शायद अखबार नही पढ़ते इसीलिए बराबर शरीक होते है एक दूसरे के दुख सुख में उनके तीज त्यौहार में। पर एक दिन जब पूरी हो जाएगी उसकी उम्र तो वो भी चला जाएगा अपने साथियों की तरह, सूख जायेंगी उसकी डालियाँ रह जाएगा शेष कि उस 'पकड़ी के पेड़ ने एक युग एक पूरा युग जिया सिर तानकर, कमर पर हाथ रखकर ...........

सारे पुराने पेड़ सूखे और मिट भी गये हैं
नये दरख्तों की बदली बदली सी छांव है
खतम हुए पंच पंचायते थी जिनके जिम्मे
अब पहले सरीखा न रहा मेरा गांव है।

अंधेरे मे खड़ा अपनी कमर पर हाथ रख
पुरानी पकड़ी का पेड़ वैसे ही अकड़ता है
दूर दूर फैली शोहरत थी मेरे गांव की बड़ी 
शायद इसी गुमां ने उसे रोक कर रखा है।

परिन्दों के आशियाने उसकी शाखों पे हैं
ये बोझ शायद उसे थक कर जाने न देता
गटठर लिए किसान सुस्ताते छांव में यहां
ये हौसला उसे विदा कर सूखने न देता हो

डरता हूं उसके साथ के सैकड़ो पीपल और नीम 
छोड़ कर चले गये वजूद अपना यादें ही बच रही
इसकी शाखें उन परिन्दों का आखरी सहारा हैं
पर मिट जायेगी इकदिन मेरे गांव की ये धरोहर।।



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