स्वेटर बुनते नहीं दिखती अब
बुआ चाची ताई या मौसी
बहन बेटी दादी और पड़ोसी
आते ही क्या खत्म हुई सर्दियां
या ख़तम हो चुकी है फिक्र
किसी सगे किसी अपने की
या मशीनों का है ये किया धरा
.
.
कमबखत मशीने ! नाश हो इनका
इकट्ठे बैठने का मौका भी छीना
क्या हो जो न होंगी ये मशीने
पर....
माँ भी तो अब कहाँ बुनतीं है
उसका मशीनों से क्या लेना
थक गई है इन्तेज़ार की धूप में
कांपते हाथ आंख भी कमजोर है
वो तो......
नाहक क्यों कोसना मशीनों को
बिचारी चुप बैठती है कोने में
अपलक देखती है थकी हुयी
छाती जलने पर थोड़ा शोर मचाती हैं
पर सुने कौन गलाफाड़ चिल्लाती हैं
कौन देखता है बदलते दौर को
अंधी दौड़ मे रौंदते किसी और को
मुझे भी तो एक अर्सा हुआ
तो क्या इतने बदल गए है हम
या इतने रिश्ते बदल गए
चले कहां को थे किधर निकल गए
#पुराना_स्वेटर
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