आज महिला काॅलेज मे कालीदास लिखित मेघदूतम पढ़ाते समय अंजना स्वयं को थोड़ा असहज महसुस कर रही थी। कई वर्षों बाद ऐसा हुआ था।
45 मिनट के हिन्दी के पीरियड का एक एक पल ऐसे दुश्वारियों से बीत रहा था मानो सदियां हो। पीरियड पूरा कर वो लाइब्रेरी की तरफ लाॅन की बेंच पर जाकर बैठ गई। अंजना के सामने पूरा वाक्या एक खटठे मीठे सपने की भांति गुजरने लगा।
दशकों पहले जब ललित का परिवार पड़ोस मे आया था उसके पिता जलविभाग मे सेक्शन आफिसर थे उनका टाइप II क्वार्टर था जबकि अंजना के पिता क्लर्क थे सो इन्हे टाइप lll मिला था। जगह थोड़ी कम थी पर खुशियों और जिंदादिली से लबालब भरी हुई थी।
कैसे वह दुबला पतला संकोची लड़का अपनी मां के साथ अंजना के यहां कोचिंग के लिए पूछते हुए आया था। किसने सोचा था, यह शुरूआती परिचय जीवन भर के लिए साथी बना जायेगी। धीरे धीरे समय बीतता गया और परिचय प्रीति मे परिवर्तित हुआ फिर रिश्ते में और अब विछोह।
समय ने कितना निष्ठुर बना दिया है उसे।
तरक्की की अंधी दौड़ मे किसी विक्षिप्त की भांति दौड़ लगाता जा रहा हैं वो।
सुना है मां बाप की भी सुध नही ले रहा।
ठीक ही तो है, जिस माता पिता ने ऐसे संस्कार दिए इतनी भौतिकवादिता सिखाया हैं उनका यही हश्र हो, वे भी तो भुगते।
उनके पडोसन से बात होती है एक दिन वो भी बता रही थी कि माता पिता को नौकरों के हवाले कर ललित अमेरिका में ही रह रहा हैं।
क्या पता शादी भी कर ली है, हुंह कर ले मेरी बला से मुझे क्या फर्क पड़ता हैं।
शादी तो नही की होगी, अधीर मन को अभीप्सा ने एक अधूरी सांत्वना दी।
काश शादी न की हो पर क्या ही फर्क पडता हैं, ये सब कुछ पहले जैसा तो हो नही सकता।
एक बार को हो भी जाये पर उसका हाथ उठाना कहीं से भी जायज न था आत्मसम्मान पर चोट को कोई कैसे भूल जायें।
जाने दो छूट गया तो अब भविष्य की तरफ देखो, मन के अभिमान ने अपने टूटेपन को समझाया।
यह लघु मानव जीवन प्रेम के लिए ही पूरा नही पड़ता पर निष्ठुर इसमे भी संतुष्ट नही हैं।
मुझे भी इसी से प्रीत होनी थी, खुद पर भी थोड़ी झुंझलाहट हुई।
अभी इन ख्यालों मे खोयी वो गाड़ी मे बैठी ही थी की मोबाइल की घंटी बजी।
स्क्रीन पर ललित के पिता का नंबर था अंजना ने नही उठाया, इन्होने भी बेटे का ही साथ दिया इकलौते बेटे की गलती पर उसे रोका नही। क्रोध ने इस निर्णय को बल दिया।
आने क्यूं इतनी महत्वकांक्षा भरते हैं लोग अपने बेटे मे की वो गलत सही की पहचान भूल जाये और अभिमान में किसी का जीवन भी नष्ट कर दे। अपने चरम पर क्रोध प्रतिशोध का रूप ले लेता है और प्रतिद्वंदी को दंडित करने का कोई अवसर नही छोड़ता।
गाड़ी घर पहुंची तो बोझिल कदमों से अपने कमरे की तरफ बढ़ गई पर घर मे घुसते ही ललित अपने पूरे परिवार संग खड़ा मिला था।
दुबला पतला बीमार सा हो गया था। अधपके बाल और उसका चेहरा और होठ जिन पर कभी सुन्दर लालिमा रहती थी वहां अब प्रायश्चित की कालिमा सी दिख रही थी।
वो चुपचाप बिना किसी प्रतिक्रिया के अपने कमरे की तरफ बढ़ी ही थी की ललित के पिता ने आवाज दी "बेटा तेरे सारे गुनाहगार एक साथ यहां तेरे सामने खड़े हैं"
हो चुकी इनकी महत्वाकांक्षा की दौड़ पूरी
बन लिए ये दुनिया के वारेन बफेट। पिता ने ललित की तरफ हिकारत से इशारा करते हुए कहा।
बच्चे तुम हमारी कुछ सजा तय करो या क्षमा करो। ससुर हाथ जोड़कर बोले हाथ जोड़े ललित के संग समूचा परिवार खड़ा था।
ललित नजरें झुकाये खड़ा माता पिता की बातों से सहमत अपराधबोध मे घिरा खुद को धिक्कारता नकारता हुआ खड़ा था।
हृदय मे पीड़ा और सजल नेत्रों मे सत्य और विजित भावों को संग लिए वो किचन की ओर बढ़ चली।
#Ssps96
शशिवेन्द्र "शशि"
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