हिन्दु धर्म मे तर्पण और अंत्येष्टि का बड़ा महत्व है बिना सम्पूर्ण क्रिया के मृतात्मा को सद्गति नही मिलती। अतः लोग अपने प्रियजन की मृत्यु का क्रियाकर्म बड़ी श्रद्धा से कराते थे इसके लिए आवश्यकता होत है ज्ञानी और सदाचारी ब्राह्मण की।
ब्रहंनाथ तिवारी की कई पीढियां घाट पर क्रिया कर्म कराती रही हैं। जब से होश संभाला तो दादा जी के साथ जाना शुरू किया था। दादा के नाम का डंका बजता था पर वो अपने खुद के बेटे के आचरण से नाखुश थे अतः पोते को बचपन से ही सिखाते थे।
हालांकि गांव के हमउम्र बच्चे ब्रहंनाथ को महाब्राह्मण कह कर चिढ़ाते थे तीन तेरह का भेद बना कर भी मजाक करते थे। जब बालक ब्रह्मंनाथ व्यंग्य और अपमान से क्षुब्ध हो जाता तो दादा से शिकायत करता। दादा समझाते ब्राह्मण कौन है?
जो ब्रह्मा का अंश है औरों को भी ब्रहं का ही अंश मानता है। जब सभी उसीका अंश तो फिर एक का दूसरे से भेद क्यूं।
तुम बताओ जन्म और वैवाहिक बंधन श्रेष्ठ या मुक्ति पाकर आत्मा का परमात्मा से मिलन?
मुक्ति, हर्षित होकर ब्रह्मंनाथ बोले
और मुक्ति मे माध्यम कौन?
ब्रहंनाथ चहककर बोलते:- महाब्राह्मण
फिर बड़ा छोटा कोई हुआ क्या।
खिलखिलाते ब्रहंनाथ ना मे सिर हिलाकर दादा से चिपट जाते और खूब सारा प्यार पाते।
दादा के कई चेहरे थे कभी उग्र कभी मद्धम पर कर्म के प्रति न्यायवादिता पर बेजोड़ थे।
गांव मे कई बार विवाद उठा दादा बड़े स्पष्ट थे मृत शरीर की कोई जाति नहीं यदि है तो सिर्फ उसका धर्म अर्थात रीति रिवाज के अनुसार शव की अंत्येष्टि करना ही उचित सम्मान है।
दादा को मरे कई दशक हो गये माता पिता भी गुजर गये समय बदल गया था। लोगो मे भौतिकता और आधुनिकता कूट कूट कर भरी हुई थी। लोग जीवित माता पिता को साथ रखने को राजी नही तो मरने के बाद क्या खर्च करते। जमाना किरिस्तानी सोच का हो गया था।
आमदनी कम हो गई थी घर मे बच्चे और पत्नी कुल पांच प्राणी इस महंगाई मे खर्च चलाना भारी था खेती बाड़ी कोई दूसरा कमाई का श्रोत और नही था।
घाट पर बैठे यही कुछ सोच रहे थे कि बंधू नाई की आवाज से तन्द्रा टूटी
अरे बाबा,सुने वो धर्मशाला वाली बुढ़िया माई मर गई।
बरसों पहले एक बुजूर्ग औरत कहीं से भटकती हुई इस गाँव मे आयी रहने का कोई ठौर नही था तो नदी किनारे एक पुराने जर्जर धर्मशाला में ही ठिकाना बना लिया गाहे बगाहे तिवारी भी दान दक्षिणा का सामान दे आते थे। आज उसकी मृत्यु की खबर पर जाने क्यूं आंखे भर आयीं थी। दोनो धर्मशाला पहुंचे सूरज आसमान मे दो लट्ठ उपर चढ़ आया था। शव को ससम्मान घाट तक ले जाया गया सारी तैयारी हो गई थी, प्रश्न था अब मुखाग्नि कौन दे।
ब्रहंनाथ ने कुर्ता निकाला जनेऊ और धोती पहने हुए सारी क्रियायें विधिपूर्वक संपन्न की। जन सहयोग से तेरहवीं की विधिवत तैयारी की गई।
तेरहवीं के दिन ब्रहंनाथ को दादा बरबस याद आ गये "मुक्ति" दिलाने वाला ही श्रेष्ठ हैं
#Ssps96
:- शशिवेन्द्र "शशि"
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