प्रीत मुंह मे रखी वह मिठाई का टुकड़ा है जिसका स्वाद जीभ पर रखने वाला ही जानता है। साथ रहते रहते चालीस बरस बीत चुके थे पार्वती काकी को इस घर मे आये हुए।
दोनो जून पूजा करती और नहाने के बाद ही घर में खाना बनता था। बद्री काका पहलवान थे इलाके मे काफी दबदबा था लेकिन जब पहला बच्चा खत्म हुआ तो टूट से गये थे। डाक्टर ने कहा था अब आगे काकी के मां बनने की उम्मीद नही बच रही है। यही ठानकर अस्पताल मे काकी को बचाने का निर्णय लिया गया था।
काकी डरी सी अस्पताल से घर आयीं थी अब तो शायद काका दूसरा ब्याह कर लेंगे। आखिर उनका वंश खानदान आगे कैसे चलेगा। नित रिश्तेदारों के झुंड आते घर लेकर से बाहर तक हर तरफ काका को समझाने और मान मुनौव्वल चलता रहता पर वो भी अपने धुन के पक्के ठहरे।
ठान लिया अब शादी फिर ना करेंगे कोई बड़ा दबाव देता तो मुस्कुराकर यह चौपाई सुना देते
"शंकर कीन्ह संकल्प मन माहीं
सती भेंट फिर एही तन नाहीं"
लोग निरूत्तर उन्हें देखते रह जाते।
काका के पास एक साइकिल थी कभी और कुछ शौक नही था दूध के लिए दो भैंसे थीं बस खेत मे मेहनत करते और सब्जी भाजी जो उगाते वो पूरे गांव को खिलाते गाहे बगाहे रुपये पैसे से लोगों की मदद भी कर देते थे।
बाढ़ सूखा आग कुछ भी हो काका छोटे बड़े सबकी मदद करते। पिछली बार अंजान संक्रामक बीमारी ने पूरे गांव को अपनी चपेट मे लिया पति पत्नी बेताल की तरह बिना थके हारे लोगों के सेवा मे लग गये जैसे अपनी जान की कोई परवाह नही। रोगियों की खूब मन लगाकर सेवा करते खुद से आधी उम्र के लोगों को पीठ पर बिठाकर शौच ले जाते उनके नित्य कर्म कराते पर रोग तो बेमौसम की बारिश जैसा उसे ही भिगोता है जिसे उसकी उम्मीद न हो।
काकी अपने निजी दुख की वजह से तन मन से कमजोर हो चलीं थी और पड़ोस के सूरज की बहू ललिता की देखभाल करते हुए जब उसे बचा ना पायीं तो और टूट गई थीं। वही तो एक थी जिसके सामने अपने मन की हर गांठ खोल लेती थीं। वह उम्र मे काफी छोटी होते हुए भी गांव की अन्य औरतों की तरह काकी को छेड़ती और बद्री काका को जोड़कर गालियां सुनाती। दोनो हंस पड़ती काकी को अपने पुराने दिन याद आ जाते। पुरानी यादें उनके जख्मों के लिए वह एक अनोखा मरहम सी लगती थी। स्त्रियां आपस मे बातें करके न सिर्फ बात बिगाड़ती ही नही है बल्कि बड़े से बड़ा दुख भी झेल जाती हैं। कुछ ऐसा ही इस संगत मे भी था।
काकी हमेशा उसके बच्चों की परवाह करती। वे भी दादी के मुंहलगे थें। हर शिक़ायत और कमी अपनी सगी से ना करके काकी से ही करते।
जबसे ललिता बहू गुजर गई थी उसके पति सूरज ने गांव का मुख तक ना देखा। निष्ठुर अपने बच्चो की भी परवाह नही करता।
इस दुख से काकी अलग ही दुखी थीं। अब इतने गम मे शरीर रूगण हो चला ज्यादा कुछ उम्मीद न रही तो डाक्टर ने घर पर ही सेवा की सलाह दी।
भारी मन से काका उन्हें घर ले आए यहां दोनो बच्चे दरवाजे पर राह जोह रहे थे। थकी बीमार काकी बिस्तर से उठ न पा रही थी कि तभी लड़की अपने भाई को समझाते हुए बोली "भैया आज पानी पीकर सो जाते हैं काकी खाना नही बना पायेगी"।
इधर इन दोनो पति पत्नी ने यह सुना तो चौंक पड़े थे क्या बच्चो ने कल से कुछ खाया नही है।
हे परमात्मा!!
यह क्या, काकी को अजीब सी बल मिल गया। वह उठ खड़ी हुई काका ने बहुत मना किया था बोले मै बना देता हूं। काकी बोली नही जी, अभी तो मरने की भी फुर्सत नही है आराम कहां करूंगी।
पति पत्नी तुरंत काम पर लग गए भोजन पकाया दोनो बच्चों को खिलाया। लड़का तोतली आवाज में बोला काकी अब ऐसे हमें छोड़कर मत जाना। जहां जाना साथ ले चलना। जब तुम नही थी तो भूख बड़े जोरों की लगी थी। दो दिन से खाना ना खाया। काकी की आत्मा कराह उठी काका निःशब्द खडे थे।
आधी रात हो चली काकी ने सोचा बच्चों को आंगन में लिटा आऊं जैसे उठने को हुई उसका आंचल नन्हें बच्चे ने अपने हाथ से बांध रखा था। काकी का जी भर आया उसने वो गांठ सदा के लिए अपने हृदय से बांध लिया और अब पति पत्नी ने ठान लिया था उन्हें जीवन जीना था। उन्हें अब भरपूर जीना था इस बंधन के विश्वास को बनाये रखने को जीना था..................
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शशिवेन्द्र "शशि"
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