वेद प्रकाश दिल्ली जल बोर्ड मे आपरेटर थे तीन दशकों से उनका परिवार सरकारी क्वार्टर मे रहता था। पानी की टंकी के आस पास खाली जगह खूब ज्यादा थी। घर के लिए साग सब्जी से लेकर किराये पर गाड़ियों की पार्किंग से अच्छा पैसा कमा लेते थे। शादी ब्याह और त्यौहारों पर तो कई गुना आमदनी हो जाती थी। उपर वाले की कृपा थी कभी तनख्वाह से खर्च चलाने की जरूरत नही पड़ी थी। चार लडकियों और दो लड़को के साथ ठाट से रहते आये थे। अपनी खुद की गाड़ियां थी जो किराये पर चलती थीं। इन सब सुख सुविधाओं मे एक ही बात जो परेशान करती थी वो थी बेटों की बेरोजगारी।
दोनो ने बी टेक की पढ़ाई कर रखी थी पर मनमाफिक तनख्वाह न मिलने के कारण नौकरी छोड़े बैठे थे। कम सैलरी वाली जगह सुविधायें भी नही होती और तान कर काम लिया जाता था बेटे नाजो नख्श मे पले थे। उनहें कष्ट सहने की आदत न थी सो ऐसी जगह से भाग पड़ते थे।
वेद ने कई अफसरों से बात चलाई आज के जमाने मे सरकारी नौकरी गेहूं के खेत मे सूई ढूंढने जैसा है। बड़ी मुश्किल से एक जगह बड़े वाले बेटे की बात बनी तो डेढ़ महीने मे ही वह काम छोड़कर भाग आया।
कितनी मिन्नतें, कितने मिठाई के डिब्बे और पांच लाख रुपयों का चढ़ावा देना पड़ा था तब कही बात बन पाई थी। अब साहबजादे वापस जाने का नाम ही न ले रहे हैं। काम कौन सा बुरा था, साहब की थोड़ी टहल सिफारिश कर दो। कभी पानी चाय मांग दी तो क्या हो गया आखिर अफसर है पर इनको तो अपनी डिग्री का गुरूर था। बी टेक जो ठहरे।
अरे भई जो रोटी ना दिला सके उस डिग्री को रख कर क्या ही करना है। वहां ड्यूटी पर किसी ने ताना मार दिया बीटेक करके भी पानी ही पिला रहा है। अफसर की झाड़ सुन रहा है बस तीर सरीखे लग गई यह बात और जनाब भाग आये। इतना ही नही अफसर की मां बहन को भी अपशब्द कह दिया सो अलग। वो तो पुराना जानकार था सो बख्श दिया वर्ना घर पर पुलिस भी आती।पर अब क्या होगा ये तो निठल्ले यूं ही पड़े रहेंगे।
कमाऊ पिता एक ऐसी बरगद की छांव होता है जिसके तले सभी सुस्ताते हैं। कुछ तो वहीं डेरा ही जमाने की जुगत मे रहते हैं। यहां घर मे पड़े पड़े ये निखटटू हो चले थे काम के नाम पर दिन भर बच्चों के साथ कैरम खेल लेते शाम को खाने मे कुछ कम हो तो घर की औरतों पर खीझ निकाल लेते। दिन ब दिन हालात और खराब ही होते जा रहे थे। अब शाम को पिता ने अपने पास बिठाना और समझाने शुरू कर दिया तो इससे बचने के लिए सैर सपाटे पर निकलने लगे। अब बाहर जो गये तो शायद, देखा तो नही पर लोगों की सुनाई बातों के हिसाब से आदत मे भी बिगाड़ आ गया था। खैनी सुरती भी खाने लगे हैं।
एक दिन तंग आकर पिता ने सोचा आज फैसला कर ही देते है दिन मे थोड़ी बहुत बातें हुई तो बबलू घर से बाहर निकल कर कही बाहर चला गया। देर रात हो चली थी पर बेटा घर नही आया था। प्रकाश कुछ देर तो गुस्से मे बुरा भला कहते रहे पर जब घड़ी का कांटा 12 को भी पार करने लगा तो हल्की सी चिन्ता होने लगी कही कोई अनहोनी तो नही हो गई।
पोता बार बार पूछ रहा था बाबा, पापा कब तक आयेंगे ?
कोई जवाब नही अब मन मे आशंकाये उठने लगीं कही कोई बात हो गई हो और कहीं कुछ गलत कदम न उठा ले मन मे अभी यही द्वंद चल रहा था।
तभी पत्नी ने अपने मायके के एक लड़के की कहानी बतानी शुरू की कैसे उसने बार बार फेल होने की वजह से अपनी जीवनलीला समाप्त कर ली।
अब तो सास बहू दोनो रोने लगी गनीमत थी पोता सोने चला गया था, छोटे बेटे की आंखे भी नम हो चली थीं।
रात जब गहराने लगी तो चिंता भी अब निश्चितता का रूप लेने लगी। गुस्से के समंदर मे डूबे पिता को अब आत्मग्लानि सताने लगी। वहीं बिस्तर पर सोये पोते को सहलाते हुए दूर तक सोचती एक गहरी सांस भरी। अपना कुर्ता खूंटी पर से उतारा और दरवाजे के पीछे से सोटा ले उसे खोजने चल पड़े। छोटा बेटा साथ चलने को आगे बढ़ा उसे मना कर दिया।
पहले बबलू के दोसतों और परिचितों के यहां पहुंचे कोई खबर मिलती न देख गलियों, चौराहों, पार्कों मंदिर और रेलवे-स्टेशन आदि हर संभावित जगह पर ढूंढा। पूरी रात उस पिता ने जितनी मिन्नतें की उतनी तो उसके जन्म के खातिर नही की थी। थक हार कर थाने पहुंचे और गुमशुदगी की रिपोर्ट लिखवायी हारे मन से घर लौटे तो रात काफी बीत चुकी थी पर अंधेरा अभी भी था।
वहीं घर की ड्योढी पर पहुंचे ही थे की अनमने ढंग से वहीं बाहर ही बैठ गये। घर वालों को क्या जवाब देंगे आखिर आज क्या गलत कह दिया था। बाप हूं क्या इतना भी नही कह सकता कि कोई काम कर ले। मन मे यही सब कुछ चल रहा था। जाने कब बूढ़े शरीर को नीद ने अपने आगोश मे ले लिया और सपने मे देखने लगे कैसे बबलू जब पैदा हुआ था। उसकी दादी ने पूरे गांव मे सत्यनारायण का प्रसाद बंटवाया था। सब कितने खुश थे घर का चिराग था।
हाय रे भगवान! अब क्या करूं यही सोच कर रोने लगे। आंसू बहते जा रहे हैं अचानक ऐसा लगा जैसे बबलू सामने खड़ा होकर पुकार रहा है
"बाबू जी, ओ बाबू जी। उनीदीं आंखे खोली तो बिखरे बाल गंदे कपड़ो में बबलू खड़ा था। आंखे मींच मींच कर देखा तो वही खड़ा है।
वेद ने न आव देखा न ताव खींच कर दो झापड़ लगाये बबलू कुछ समझ पाता इससे पहले उसे बांहो मे जकड़ कर सीने पे खींच लिया जैसे कहीं भागा जा रहा हो। बेटे को अपने पिता की आंखो मे गुस्से की जगह एक डर देख कर बड़ा अजीब सा लगा वह चुप उनसे चिपटा रहा। यह शोर शराबा सुनकर थोडी ही देर मे घर के सभी लोग दौड़कर आ गये बबलू को देखकर सभी हर्षित थे। सास बहू फिर रोने लगी छोटा बेटा भी फफक़ कर रो रहा था। बबलू ने घबराकर पिता के हाथ मे सात सौ रूपये रख दिए और पूरा वाक्या बताया।
उस रात उसने शहर की मंडी मे पल्लेदारी की थी और उसी कमाई को पिता को देकर बोला "बाबू जी आप ही कहते थे न काम कोई छोटा नही होता सो आज मैने खुद को आजमाया। अब आप बताइये कैसा किया मैने?
पिता ने बेटे को गले से लगाकर पीठ पर हल्की धौल जमाई। बाप बेटे दोनो की आंखे नम थीं पिता अपनी अप्रत्याशित जीत पर बहुत खुश था आज बेटा वास्तव मे घर का चिराग बन कर लौट आया था।
: शशिवेन्द्र "शशि"
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