रविवार, 9 अप्रैल 2023

प्रथम सर्ग:- बचपन से शासन तक

जितनी रहे कठोर धरा उतना जीवन तपता है
सिंह भला क्या कभी मृदु मृग के घर पलता है
जननी निज सुत पे जब अगाध स्नेह रखती है 
भिन्न भिन्न कोणों से उसको नित्य परखती है।।01

 देख पुत्र को संघर्षो मे मां का आंचल भर आये
रोक सिंधु आंसू का एक बूंद न बाहर आने पाये
दुर्गा का है रूप और वीर प्रसविनी जननी है
इतिहास मे पूजित देवी है और वीर मननी है।। 02

वर्तमान को करे न्यौछावर गुप्त भविष्य के आगे
तब उस घर के उस कुल के सोयी किस्मत जागे
कुल सिसौदिया अटल वीरों की ऐसी बानी था
जिसमे पूर्वज सांगा के संकल्पों का पानी था। 03

कुल के वंशज उदयसिंह भी कहां कुछ कम थे
बैरी से लड़ने मिटने को अकल्पित दम खम थे
पर सूरज जब निकले तब छिपते सितारे सारे
उसके अंबर मे आने से हो कोने कोने उजियारे।04

कुछ मतभेद जगा महलों मे हुई रूष्टता भारी
स्व कुटुंब के असंतोष से भरमै थे नर नारी
बढ़ जाये जब द्वंद तब अपनी बुद्धि भरमाती
अपनो की छोटी बातें भी हृदय बेध हैं जाती।।05

ना कुछ संकोच ना ही परवाह शेष बचती है
हां इस हार जीत की बातों पर दांव लगती है
सुन्दर और सलोना मुखड़ा दर्पण मे दिखता है
अस्थिर और खौलते जल मे कहां दिख पड़ता है।।06

उदयसिंह की मर्म भरी बातों से आग भड़की थी
जिसकी परिणिति दुखद सामान्य एक झिड़की थी
तर्क कुतर्क परे सीमा के पहुंच सहज ही आये हुआ
निरूत्तर पुरूष जब कभी तो आंख दिखाये।।07

तर्क शक्ति इक नारी का विधि ने है स्वयं सजाया
काबिल पुरूष कभी भी ना नाजवाब कर पाया
थक हार कर असरदार घुड़की धमकी ही बचती है
पर मेघों की घुड़की से भला धरा कही डरती हैं।। 08

घर कुटुम्ब मे अपनो से बात घणी बिगड़ जाती है
उस पल जीवन मे प्रथम पुरूष की याद आती है
जो उसके हारे से हारा हो उसके जीते से जीत
ऐसा पुरूष जनक कन्या का यह है जग की रीत।।09

रानी कुंवर भी पुत्र संग ले चली मायके आयी 
बही अश्रु की धार निज जननी से लिपटायी 
कुछ दिन यही रहेंगे दोनो ही ठान यही मन आये 
लौटेंगे जब तक की कुछ बात नही बन जाये।।10

नन्हा राजकुमार चला अब मामसा के घर आया 
राजमहल की बंदिश से बच उसका जी हरषाया 
राजप्रसाद की आदत सब सुख वैभव की भारी 
यहां कहां थी मिल पाती वैसी आलीशान सवारी।।11

पर कुंदन बनने से पहले सोना पिटता तपता है 
तब कही जाकर धरा को अमोल कुंदन मिलता है 
ऐसा ही था अब नियति मे उस कुमार के हिस्से
संकट और संघर्षो से मिलकर गढ़ना था किस्से।। 12

 राजपुत्र की कोमल काया अब जंगल मे घुमेगी
गिरने उठने के इस क्रम मे नित मातृभूमि चुमेगी
दांव सिखाने वाले जो थे वे अरण्य के वासी
रोने की बातों पर भी उनको आती थी हंसी।। 13

 राजवंश था बना कुटुंबी आदिवासी आह्लादित 
जैसे वन मे घूम राम ने किया सभी रामादिक 
फिर कुछ ऐसा ही कठोर माता छाती रखती है 
नवजात तक को भूख मिटाने की शिक्षा देती है।। 14

कंधे पर बैठा प्रताप को सरपट दौड़ लगाते
कीका आया कीका आया सबको खूब जनाते 
ना जाने क्या प्रेम कौन सा जोड़ लगाया विधि ने 
आतमस्नेह की मामा भामसा की अमूल्य निधि मे।। 15

ना राणा रहते पलभर भी दूर कही पुंजा से 
ना ही भील कभी रह पाते इस नन्हे कान्हा से 
कही कभी दाब पांजरे उनको खूब घुमाते 
कभी शीर्ष पर बैठा ले जंगल बाग दिखाते।।  16

कहीं खा लिया कहीं पी लिए सो गये जाकर
सभी भील खुश थे इस नन्हे कान्हा को पाकर 
ज्यूं गोविंद रचे लीला को वृन्दावन कुंजन मे 
मामसा था हर भील मामी सा थी हर भीलन मे।।17

बाल गोपाल सखा भाई थे रहते थे सब घुलमिल 
कीका की भोली बातों पर सब हंसते खिलखिल
घुंघराले बालो से चेहरा ढका हुआ मनमोहक 
जिसके रहने से होती थी हर कुटिया मे रौनक।। 18

नये नये थे खेल अबूझे थे दुर्गम साज खिलौने
आयु मे सब बड़े खिलाड़ी कीका नन्हे बौने 
खेल खेल मे हो जाते आपस मे गुत्थम गुत्था 
ना बन्ना ना भील अलग एक ही था वो जत्था।। 19

भीलों को निज चोटों की रंचक परवाह नही थी
कीका को गुस्सा ना आये इसकी चाह बड़ी थी 
इस अद्भुत स्नेह को दैव किस धागे मे गुंथा था 
प्यारा और दुलारा खिलौना जो साथ खड़ा था।। 20

जेठ मास की गर्म दुपहरी और बगिया की छाया 
लखनू पाती खेलने का था सही मौसम है आया 
दो दल बन गये और खेल शुरू हुआ रोचक
लडने की स्पर्धा में भिड़ जाते वहां सहोदर।। 21

तेज धूप मे श्रमजल की अविरल धार 
बही रिक्त हुआ जलकलश और कहीं 
शेष नहीं इतने मे थक प्यासे दल के सभी खिलाड़ी
व्याकुल थे वे प्यास से नन्हे अनाड़ी।। 22

जल की नही पूर्व योजना ना ध्यान दिया था 
जोश जोश मे खेलने का ही ठान लिया था 
पर मरूस्थल से तेज जो गर्म हवा आती थी 
जल समान ही मनुज का कंठ सुखा जाती थी।।23

पानी की इस हुई कमी से बढ़ी विकलता भारी
इक दूजे आपस में भिडते होती हाथापाई
बैठे रहना हल नही इसका यही समझकर बात 
चले ढूंढने पानी को सबको ले अपने साथ।। 24

चार कदम से कोसभर आये पर काम बना था
आज मरेंगे क्या पानी बिन विधि ने ठान था
बड़ी विचित्र दशा है यह उजड़ा उजड़ा गांव 
ना कोई जन दिखता ना है तरूवर की छांव।। 25

इस विचार मे मग्न सब शीश झुकाये बढ़ते जाते
सूखी कंठ मे बरबस अपनी सूखी जीभ़ फिराते
तभी दूर तरूवर के नीचे जल की आहट आई
कलश लिए काले वस्त्रों मे बैठ दिखी एक माई।।26

अहा नाथ यह माता तो जीवनदायिनी लगती है
इस असहाय घड़ी मे जगदंबा प्रतिमा दिखती है
नही हुआ संवाद तनिक सब पानी पीने झुकते
कलश मे रखी लोटिया से मातृ प्रसाद चखते थे।।27

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