रविवार, 24 अगस्त 2025

द्रोण पुस्तक के चतुर्थ सर्ग से

ये धृष्ट जयद्रथ खड़ा हुआ 
अपने दोषों से सजा हुआ 
थी कुटिल चाल दिखलाई
तेरे सुत की मौत करायी ।

सम्बंधी, नही क्षम्य है ये
आगंतुक नही गम्य है ये
इसको परिणाम दिखाना है
यमलोक इसे पहुंचाना है।

तो तान शरासन हे अर्जुन 
क्षत विक्षत इसे अभी कर दे
चल बान मार कर राक्षस को
इसके खूं से कुरूक्षेत्र रंग दे।

अभिमन्यु न सिर्फ भागिनेय मेरा
वो प्यारा शिष्य भी मेरा था।।
तु जनक तो हूं मैं उसका मामा
दो माताओं सम आंचल मेरा था।।


चक्रव्यूह रचा द्रोण ने जब
था कुटिल क्रुद्ध राजाओं से
उसमें कुंठा थी भरी इतनी 
क्या प्राप्त उसे विधवाओं से।।

यूं लिए हलाहल कुंठा का 
वो राज कुटुंब में बसता था
उसके के चरणों में शीश धरे
राज समाज सब रहता था।।

उसी राज कुमार का उसने
भीषण आखेट कराया है
शावक वधने की खातिर
गुरू का धर्म लजाया है।।।

एक वीर साधने में इनके
सब छक्के छूटे जाते हैं
खड़ग चलाते पीछे से
हितैषी तेरा बताते हैं।।

सब नियम ताख पर रख
उस बालक से लडे सात
इक के वश था नही वीर
कायरों की क्या ही बिसात।।

जिस घर का राजपुरोहित था
उस घर को वेध दिया उसने
सादर ही शीश जो झुकता था
झुकने पर काट लिया उसने।।

अब शीश कटेंगे कुरूओं के
संबंधी के या गुरूओं के
एक ही धर्म निभाना तुम
अरि का सर्वस्व मिटाना तुम।।

जी करता कालरूप धर लूं
पी जाऊं पाप धरा का सब
है क्षुब्ध चित्त मेरा इतना या
नरसिंह रूप धरूं क्या अब।।

शनिवार, 23 अगस्त 2025

महादेवी वर्मा को शब्दसुमन अर्पण !

महादेवी वर्मा को शब्दसुमन अर्पण!
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महादेवी वर्मा उस कलम सिद्ध साहित्यकार का नाम है जो बर्बरीक की भांति अपने एक ही रचना रूपी प्रहार से समकालीन साहित्य के तमाम दिग्गज साहित्यकारों का सादर अभिवादन करती और समान हैसियत के रचनाकारों के कंधे पर स्नेहपूर्ण भ्रातृसम हस्त रखती प्रतीत होती हैं।
उनकी रचना 'संस्मरण' दद्दा राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त से आरंभ होकर निराला, प्रेमचंद और सुंघनी साहू के तंग बनारस की गलियों से गुजरती पंत और सुभद्रा से सुखद चर्चा करती गुरूदेव रवीन्द्र के ऋषित्व को प्रणाम करती है, आगे बढ़कर राष्ट्रपिता बापू के स्मरण मे बाबू राजेंद्र प्रसाद की सादगी को श्रद्धा से स्पर्श करती पंडित नेहरू और राजर्षि टंडन तक अपनी स्मृतियों की गुल्लक का संचय दिखाती पूर्ण होती है।
गार्गी और अपाला जैसे भारतीय नारियों की दर्शन और साहित्य में सिद्धा परंपरा को आगे बढाती ऐसी विदुषी मनीषा की भावपूर्ण लेखनी को प्रणाम🙏

प्रतिज्ञा

इतिहास मे प्रतिज्ञा पर आधारित कई महान घटनायें हुई इन पर अनेकों रोचक वर्णन और कथायें आज भी मौजूद है। यहां तक की कई विद्वान 'भीष्म प्रतिज्ञा' को महाभारत जैसे भीषण युद्ध का परोक्ष आधार भी मानते हैं लेकिन प्रतिज्ञा का अर्थ महज वचनबद्ध होने मात्र से नही है वरन मन, कर्म और वचन से उस संकल्प को निभाने में हैं।
कथा सम्राट मुंशी प्रेमचंद के उपन्यास 'प्रतिज्ञा' का नायक 'अमृतराय' अपने जीवन व्रत को आजीवन निभाने के लिए प्रतिबद्ध है जबकि इसमे वर्णित नायिकाओं ने साधारण परंतु अप्रतिम भारतीय नारी की झांकी प्रस्तुत की है। लाला अमृतराय अपनी पत्नी की मृत्यु के बाद उसकी छोटी बहन 'प्रेमा' में नई जीवन संगिनी को देख ही रहे थे कि उन्हें इससे भी बडें एक लक्ष्य की दिशा मिल जाती है फिर वह एक संन्यासी की भांति सारा सुख और वैभव छोड़कर उस लक्ष्य के ही होकर रह जाते हैं। इस दौरान उन्हें कितने झंझावात यहां तक कि अपने लंगोटिया यार दाननाथ से भी भयंकर विरोध झेलना पड़ता है, ससुराल वालों की उपेक्षा और ताने सुनने पडते हैं लेकिन वो अपने संकल्प से टस से मस नही होते। कमलाप्रसाद आधुनिकता की चाशनी में लिपटा एक विषैला करेला है जो ढकोसलेबाजी में नंबर वन है और नैतिकता और आदर्श से कोंसो दूर किन्तु अपनी पत्नी सुमित्रा के ताने और उलाहनों से पीड़ित उसका मन अंतत: हारकर सुमित्रा की ही शरण लेता है। 
मुंशी प्रेमचंद जैसा कालजयी कथाकार अपने शब्दों से एक ऐसी श्रृंखला तैयार करता है जिसकी एक एक कड़ी को पकड़ता हुआ पाठक अपनी उत्सुकता के गहरे समुद्र को पार कर लेता है उदाहरणत:----

पृथ्वी ने श्यामवेष धारण कर लिया और बजरा लहरों पर थिरकता हुआ चला जाता था। उसी बारे की भांति अमृतराय का हृदय भी आंदोलित हो रहा था, दाननाथ ने निस्पंद बैठे हुए थे, मानो वज्राहत हो गये हों। सहसा उन्होने कहा-- भैया तुमने मुझे धोखा दिया।

रविवार, 29 दिसंबर 2024

फिसलता वक्त ⏳️

अब तक बड़ी शिद्दत से जी है जिंदगी
खुदा से इतर करी न किसी की बंदगी
आयेगी मौत तो न झुकेंगी मेरी नजरें
शुक्र है जो न की हसीनों से दिल्लगी।।१


झूठ के मुंह पर हमेशा उसे झूठ कहा
वक्त बदला तो दौर अब अपना न रहा
हम तो नजाकत में पले थे बचपन से
बदलते मौसम के थपेड़े कभी न सहा।।२

इल्म हुआ बेशक इन थपेड़ो की चोट से
सुरखुरु करने का ये कुदरती अंदाज है
शुक्रिया कहने को अब रहता ही कौन
खत्म हो तमाशा तो क्या शाकीन बचते हैं?३

गिरते गिरते भी संभल पाने का हुनर
डूबने पे तैरकर निकल जाने का हुनर
समो लेना समंदर का तूफां आगोश में
मुफलिसी से सीखा हमने अजीम हुनर।।४

हमने डंसते आस्तीनो का सांप देखा है
गोया जीत चुके बाजी की मात देखा है
देखा, दूसरों के जज्बात ठुकराते लोग
गैर की आफत मे कहकहे लगाते लोग।।५

अपना जुगनू तो दम भर उछालते हैं
दूजे का हो आफ़ताब खाक बताते हैं
सब्र औ सुकुं बचा ही कहां दुनिया में
मशविरा देकर यहां माल कमा जाते हैं।।६

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रविवार, 15 दिसंबर 2024

पकड़ी का पेड़:- धरोहर

 


मेरे गांव मे एक पुराना 'पकड़ी' का पेड़ है जो हमारी कई पीढियों से यूं ही अडिग अचल खड़ा है। वो मेरे गांव के पश्चिमी छोर पर मौन खड़ा सैकड़ो पंक्षियों का बसेरा है। छोटे बड़े किसान अपनी फसल की मड़ाई करते हैं वहां उसने देखा है अनगिनत बदलती हुई ऋतुएं, बदलते हुए मुख्तार और अप्रतिम भाईचारा ।

उसने देखा है 'कर्बला के मेले' में ताजिए के पास ढोलक बजाता संदीप, जलेबी बनाते पुजारी, सब्जी बेचते रामकिशुन और कागज के बनावटी घोड़े को नचाते जवाहर और भी ऐसे अनेकों लोग जो शायद अखबार नही पढ़ते इसीलिए बराबर शरीक होते है एक दूसरे के दुख सुख में उनके तीज त्यौहार में। पर एक दिन जब पूरी हो जाएगी उसकी उम्र तो वो भी चला जाएगा अपने साथियों की तरह, सूख जायेंगी उसकी डालियाँ रह जाएगा शेष कि उस 'पकड़ी के पेड़ ने एक युग एक पूरा युग जिया सिर तानकर, कमर पर हाथ रखकर ...........

सारे पुराने पेड़ सूखे और मिट भी गये हैं
नये दरख्तों की बदली बदली सी छांव है
खतम हुए पंच पंचायते थी जिनके जिम्मे
अब पहले सरीखा न रहा मेरा गांव है।

अंधेरे मे खड़ा अपनी कमर पर हाथ रख
पुरानी पकड़ी का पेड़ वैसे ही अकड़ता है
दूर दूर फैली शोहरत थी मेरे गांव की बड़ी 
शायद इसी गुमां ने उसे रोक कर रखा है।

परिन्दों के आशियाने उसकी शाखों पे हैं
ये बोझ शायद उसे थक कर जाने न देता
गटठर लिए किसान सुस्ताते छांव में यहां
ये हौसला उसे विदा कर सूखने न देता हो

डरता हूं उसके साथ के सैकड़ो पीपल और नीम 
छोड़ कर चले गये वजूद अपना यादें ही बच रही
इसकी शाखें उन परिन्दों का आखरी सहारा हैं
पर मिट जायेगी इकदिन मेरे गांव की ये धरोहर।।



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रविवार, 8 दिसंबर 2024

'द्रोण' पुस्तक के अंश का संकलन, एक कविता के रूप मे


यह कविता मेरी पुस्तक द्रोण के अंश का संकलन है। यह संकलन मैंने बांग्लादेश मे हो रहे हिन्दू नरसंहार के विरुद्ध रोष वश लिखा है

पांडवों की थी पीड़ा दैनिक 
मरते थे दस सहस्त्र सैनिक
भीषण पर्वत कब हारेगा 
बढ़ कौन समय को मारेगा ।।1

गंभीर विषय ये देख हरि 
थे विवश बड़े ये सोच हरि 
न कहिं बची कोई युक्ति शेष 
यही चिंता हरि की थी विशेष।।2

विधि लेखन क्या गलत होगा
या इसमे परिवर्तन होगा 
सब जान मंद मुस्काते हैं 
हरि इसका आनंद उठाते हैं ।।7

अर्जुन लहराता क्यूँ गैरों पर
कायर बन फिरता अपनों पर
जब सारी हुयी युक्ति असफल
समझाने की हर आस विफल।।16

क्षण छोड़ सारथी की पदवी
और दिया सुदर्शन तान वही
रथ छोड़ा और अश्व छोड़े 
प्रभु भीष्म का वध करने दौड़े।।29

एक कवि कूटनीति ना समझाता हो पर उसे लेखन और दर्द, पुकार, चीत्कार और प्रेम ज्यादा समझ आता है 
#bangladesh 

द्रोण पुस्तक के चतुर्थ सर्ग से

ये धृष्ट जयद्रथ खड़ा हुआ  अपने दोषों से सजा हुआ  थी कुटिल चाल दिखलाई तेरे सुत की मौत करायी । सम्बंधी, नही क्षम्य है ये आगंतुक नह...