उस दरख्त का मेरे घर के दरवाजे पर आना मना है।।
हम अपने पुराने घर मे जैसे चाहते हैं वैसे रह लेते हैं
अम्मा के आंचल जैसा वो अब भी छोटा नही पड़ता।।
शहर की आलीशां कोठी मे बोझ है और घुटन भी है
दिल लगाकर बनाया जरूर है पर अंजानी कमी सी है।।
जगाने को घर में अलार्म है पर वो मजा नही आता
दरवाजे को बुहारते हुए कहां अब कोई है जगाता।।
न भाई बहनों की तकिए की तकरार, न जंग होती है
नही लड़ता है छुटका अब न ही मुनिया ही रोती है।।
अब तो आगे सोने को छुटकू की जिद भी न होती
कितने बदले है रिश्ते जरूरतें और खासकर हम
मनाना भी नही पड़ता उसे चंदा को मामा बता करके
न ही वो जिद करता है कभी फोन पर आ करके।।
दीवाली मे हुई थी बात अब परसों होली भी आ गई
कहां रोजाना फोन कर किसी को परेशां करे कोई।।
शायद यह अदब़, यह शऊर सीखा है मैने शह़र से
बेवजह बिना बात क्यूं किसी का वक्त बर्बाद करें।।
बचपन मे बदनाम लोगों को सुनता देखता था मैं
फलां की बेरूखी के किस्से को गौर से गुनता था मैं।।
मेरी छुटपन की बुद्धि तब फ़ैसला कर नही पाती
कैसे मां को अलग रखकर जिन्दगी जी हैं जाती।।
बड़ा होकर समझा हूं दुनियादारी के ये घने दांव
मैने भी है आजमाया मां को अलग रखने का रोग।।
सिमट गये हैं रिश्ते ये जिंदगी या हम इंसा बदले हैं
बदलते दौर मे सब कुछ बदल तरक्की को चले हैं।।
अम्मा के आंचल जैसा वो अब भी छोटा नही पड़ता।।
शहर की आलीशां कोठी मे बोझ है और घुटन भी है
दिल लगाकर बनाया जरूर है पर अंजानी कमी सी है।।
जगाने को घर में अलार्म है पर वो मजा नही आता
दरवाजे को बुहारते हुए कहां अब कोई है जगाता।।
न भाई बहनों की तकिए की तकरार, न जंग होती है
नही लड़ता है छुटका अब न ही मुनिया ही रोती है।।
अब तो आगे सोने को छुटकू की जिद भी न होती
कितने बदले है रिश्ते जरूरतें और खासकर हम
मनाना भी नही पड़ता उसे चंदा को मामा बता करके
न ही वो जिद करता है कभी फोन पर आ करके।।
दीवाली मे हुई थी बात अब परसों होली भी आ गई
कहां रोजाना फोन कर किसी को परेशां करे कोई।।
शायद यह अदब़, यह शऊर सीखा है मैने शह़र से
बेवजह बिना बात क्यूं किसी का वक्त बर्बाद करें।।
बचपन मे बदनाम लोगों को सुनता देखता था मैं
फलां की बेरूखी के किस्से को गौर से गुनता था मैं।।
मेरी छुटपन की बुद्धि तब फ़ैसला कर नही पाती
कैसे मां को अलग रखकर जिन्दगी जी हैं जाती।।
बड़ा होकर समझा हूं दुनियादारी के ये घने दांव
मैने भी है आजमाया मां को अलग रखने का रोग।।
सिमट गये हैं रिश्ते ये जिंदगी या हम इंसा बदले हैं
बदलते दौर मे सब कुछ बदल तरक्की को चले हैं।।
संवाद:- रिश्तों को निभाने मे हम अपने पूर्वजों से बहुत पीछे हैं। यकीं मानिए लंबा चौड़ा और भरा पूरा परिवार एक वरदान की तरह होता है। जड़ों से जुड़े रहिए
इस कविता मे लिखी गई बातें मेरे निजी जीवन से भले ही ताल्लुक न रखती हों लेकिन एक लेखक के तौर पर समाज में इस तरह का अपभ्रंश मैं नियमित तौर पर देख रहा हूं। आप सभी भी रिश्तों मे आये इस तरह के अवमूल्यन को देखते होंगे।
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