उजले बालों को देखकर ये ख्याल आता है
जहां मे मुस्ससलल क्या है वक्त के सिवा
गुमां बेकार है दौर को अपना बताने का
वक्त की दरिया मे बह जाते है सब निशां।।1
जिनका हुकुक कायम कभी अहले वतन में
दो गज़ मिट्टी मयस्सर नही उसे क़ब्रे दफ़न में
उम्र भी तो मुट्ठीभर रेत ही कहते हो साहेब
नही ये कम बीते जो जिन्दगी चैन ओ अमन से।।2
लिखने बैठो तो सब दुशवारिया टूट पड़ती हैं
किसी ने यादों की बाल्टी सिर पे उलट दी है
छुटपन के वो वादे इरादे अब भी याद आते हैं
आम की डाली पकड़ कसमें जो हम खाते थे।।3
खो गये वो मेरे दोस्त या सयाने हो बदल गये
मेरे मुहल्ले के वो सारे सामियाने भी जल गये
गली कच्ची रही नही तो लड़के कंचे खेले कैसे
तरक्की ने शायद उनकी ये खुशियां लूट ली है।।4
दौर बदलेगा, कल मेरा तो आज तुम्हारा होगा
बड़ी शिद्दत से हर दौर के कुछ सानी भी होंगे
पर्दा गिरा तो उनके किरदार भी बदल जायेंगे
इस उठापटक मे एक मशविरा ग़र तुम मानो।।5
संजो लेना उसे जेहन मे जो ख़ुशनुमा गुजारा है
जब कभी भी बैठोगे इस रेतीली नदी के किनारे
और उठाओगे इसकी रेत को पानी समझ़कर के
फिसल जायेगी यह, फिसलना इसकी फितरत में है।।6
शशिवेंद्र 'शशि' एक लेखक और विचारक हैं जो लगभग दो दशकों से शिक्षण, अनुसंधान और लेखन के क्षेत्र से जुड़े हुए हैं। अपने लेखन के माध्यम से वह भारतीय समाज की परंपराओं और रुढ़ियों की जटिलताओं में गहराई से जाते हैं। वह जाति प्रणाली और असमानताओं की आलोचना करते हैं और सांस्कृतिक न्याय और समानता के लिए मजबूती से वकालत करते हैं। शशि समानता और सुलभ न्याय के लिए वकालत करते हैं, साथ ही साथ महान सांस्कृतिक विरासत का जश्न मनाते हैं। ट्विटर: @Shashivendra84 सोशल मीडिया हैशटैग: #Ssps96
बुधवार, 6 सितंबर 2023
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