शुक्रवार, 15 सितंबर 2023

ताकि जीवन बचा रहे

ताकि जीवन बचा रहे
वृक्ष लगाओ तन्मयता से
नव पीढ़ी पर्यावरण बचाये
अपनी पूरी क्षमता से।।1
कैसा कठिन रहेगा जीवन
गर नदिया मे पानी ना हो
कैसे गुजर करोगे प्यारे
घर मे रखा अन्न भी ना हो।।2

कौवा बुलबुल मोर हंस और
बगुले क्या तुम्हे नही रिझाते
पेड़ो पर बेठे बंदर क्या 
दांत दिखा न तुम्हे चिढ़ाते।।3

कैसा दुर्दिन होगा सोचो
आंगन मे गौरैया ना आए
कितना नीरस होगा बोलो
वृक्षों पर कोयल ना गाये।।4

चीतल खरहा हिरन भालू 
मरे पड़े क्या देख सकोगे
पुरखों ने जो तुमको सौंपा
उससे बुरा इतिहास लिखोगे।।5
इसे मिटाओ आगे बढ़कर
पर्यावरण बचाओ भाई
समझ बूझकर भेज रहा
"ओजोन दिवस" की तुम्हे बधाई।।6
:- शशिवेन्द्र "शशि"



गुरुवार, 7 सितंबर 2023

दरख्त से बना घर

जिस पेड़ की शाखों से मेरा आलीशान मकां बना है
उस दरख्त का मेरे घर के दरवाजे पर आना मना है।।


तो दूर गांव से ही अपनी दुआ के असर भेजती है मां
नये घर की इस मालकिन से मेरी मां का तनी तना है।।

हम अपने पुराने घर मे जैसे चाहते हैं वैसे रह लेते हैं
अम्मा के आंचल जैसा वो अब भी छोटा नही पड़ता।।

शहर की आलीशां कोठी मे बोझ है और घुटन भी है
दिल लगाकर बनाया जरूर है पर अंजानी कमी सी है।।

जगाने को घर में अलार्म है पर वो मजा नही आता
दरवाजे को बुहारते हुए कहां अब कोई है जगाता।।

न भाई बहनों की तकिए की तकरार, न जंग होती है
नही लड़ता है छुटका अब न ही मुनिया ही रोती है।।

अब तो आगे सोने को छुटकू की जिद भी न होती
कितने बदले है रिश्ते जरूरतें और खासकर हम

मनाना भी नही पड़ता उसे चंदा को मामा बता करके
न ही वो जिद करता है कभी फोन पर आ करके।।

दीवाली मे हुई थी बात अब परसों होली भी आ गई
कहां रोजाना फोन कर किसी को परेशां करे कोई।।

शायद यह अदब़, यह शऊर सीखा है मैने शह़र से
बेवजह बिना बात क्यूं किसी का वक्त बर्बाद करें।।

बचपन मे बदनाम लोगों को सुनता देखता था मैं
फलां की बेरूखी के किस्से को गौर से गुनता था मैं।।

मेरी छुटपन की बुद्धि तब फ़ैसला कर नही पाती
कैसे मां को अलग रखकर जिन्दगी जी हैं जाती।।

बड़ा होकर समझा हूं दुनियादारी के ये घने दांव
मैने भी है आजमाया मां को अलग रखने का रोग।।

सिमट गये हैं रिश्ते ये जिंदगी या हम इंसा बदले हैं
बदलते दौर मे सब कुछ बदल तरक्की को चले हैं।।

संवाद:- रिश्तों को निभाने मे हम अपने पूर्वजों से बहुत पीछे हैं। यकीं मानिए लंबा चौड़ा और भरा पूरा परिवार एक वरदान की तरह होता है। जड़ों से जुड़े रहिए 
इस कविता मे लिखी गई बातें मेरे निजी जीवन से भले ही ताल्लुक न रखती हों लेकिन एक लेखक के तौर पर समाज में इस तरह का अपभ्रंश मैं नियमित तौर पर देख रहा हूं। आप सभी भी रिश्तों मे आये इस तरह के अवमूल्यन को देखते होंगे।

बुधवार, 6 सितंबर 2023

वक्त:- रेतीली नदी

उजले बालों को देखकर ये ख्याल आता है
जहां मे मुस्ससलल क्या है वक्त के सिवा
गुमां बेकार है दौर को अपना बताने का
वक्त की दरिया मे बह जाते है सब निशां।।1

जिनका हुकुक कायम कभी अहले वतन में
दो गज़ मिट्टी मयस्सर नही उसे क़ब्रे दफ़न में
उम्र भी तो मुट्ठीभर रेत ही कहते हो साहेब
नही ये कम बीते जो जिन्दगी चैन ओ अमन से।।2

लिखने बैठो तो सब दुशवारिया टूट पड़ती हैं
किसी ने यादों की बाल्टी सिर पे उलट दी है
छुटपन के वो वादे इरादे अब भी याद आते हैं
आम की डाली पकड़ कसमें जो हम खाते थे।।3

खो गये वो मेरे दोस्त या सयाने हो बदल गये
मेरे मुहल्ले के वो सारे सामियाने भी जल गये
गली कच्ची रही नही तो लड़के कंचे खेले कैसे
तरक्की ने शायद उनकी ये खुशियां लूट ली है।।4


दौर बदलेगा, कल मेरा तो आज तुम्हारा होगा
बड़ी शिद्दत से हर दौर के कुछ सानी भी होंगे
पर्दा गिरा तो उनके किरदार भी बदल जायेंगे
इस उठापटक मे एक मशविरा ग़र तुम मानो।।5

संजो लेना उसे जेहन मे जो ख़ुशनुमा गुजारा है
जब कभी भी बैठोगे इस रेतीली नदी के किनारे
और उठाओगे इसकी रेत को पानी समझ़कर के
फिसल जायेगी यह, फिसलना इसकी फितरत में है।।6

द्रोण पुस्तक के चतुर्थ सर्ग से

ये धृष्ट जयद्रथ खड़ा हुआ  अपने दोषों से सजा हुआ  थी कुटिल चाल दिखलाई तेरे सुत की मौत करायी । सम्बंधी, नही क्षम्य है ये आगंतुक नह...