रविवार, 29 दिसंबर 2024

फिसलता वक्त ⏳️

अब तक बड़ी शिद्दत से जी है जिंदगी
खुदा से इतर करी न किसी की बंदगी
आयेगी मौत तो न झुकेंगी मेरी नजरें
शुक्र है जो न की हसीनों से दिल्लगी।।१


झूठ के मुंह पर हमेशा उसे झूठ कहा
वक्त बदला तो दौर अब अपना न रहा
हम तो नजाकत में पले थे बचपन से
बदलते मौसम के थपेड़े कभी न सहा।।२

इल्म हुआ बेशक इन थपेड़ो की चोट से
सुरखुरु करने का ये कुदरती अंदाज है
शुक्रिया कहने को अब रहता ही कौन
खत्म हो तमाशा तो क्या शाकीन बचते हैं?३

गिरते गिरते भी संभल पाने का हुनर
डूबने पे तैरकर निकल जाने का हुनर
समो लेना समंदर का तूफां आगोश में
मुफलिसी से सीखा हमने अजीम हुनर।।४

हमने डंसते आस्तीनो का सांप देखा है
गोया जीत चुके बाजी की मात देखा है
देखा, दूसरों के जज्बात ठुकराते लोग
गैर की आफत मे कहकहे लगाते लोग।।५

अपना जुगनू तो दम भर उछालते हैं
दूजे का हो आफ़ताब खाक बताते हैं
सब्र औ सुकुं बचा ही कहां दुनिया में
मशविरा देकर यहां माल कमा जाते हैं।।६

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रविवार, 15 दिसंबर 2024

पकड़ी का पेड़:- धरोहर

 


मेरे गांव मे एक पुराना 'पकड़ी' का पेड़ है जो हमारी कई पीढियों से यूं ही अडिग अचल खड़ा है। वो मेरे गांव के पश्चिमी छोर पर मौन खड़ा सैकड़ो पंक्षियों का बसेरा है। छोटे बड़े किसान अपनी फसल की मड़ाई करते हैं वहां उसने देखा है अनगिनत बदलती हुई ऋतुएं, बदलते हुए मुख्तार और अप्रतिम भाईचारा ।

उसने देखा है 'कर्बला के मेले' में ताजिए के पास ढोलक बजाता संदीप, जलेबी बनाते पुजारी, सब्जी बेचते रामकिशुन और कागज के बनावटी घोड़े को नचाते जवाहर और भी ऐसे अनेकों लोग जो शायद अखबार नही पढ़ते इसीलिए बराबर शरीक होते है एक दूसरे के दुख सुख में उनके तीज त्यौहार में। पर एक दिन जब पूरी हो जाएगी उसकी उम्र तो वो भी चला जाएगा अपने साथियों की तरह, सूख जायेंगी उसकी डालियाँ रह जाएगा शेष कि उस 'पकड़ी के पेड़ ने एक युग एक पूरा युग जिया सिर तानकर, कमर पर हाथ रखकर ...........

सारे पुराने पेड़ सूखे और मिट भी गये हैं
नये दरख्तों की बदली बदली सी छांव है
खतम हुए पंच पंचायते थी जिनके जिम्मे
अब पहले सरीखा न रहा मेरा गांव है।

अंधेरे मे खड़ा अपनी कमर पर हाथ रख
पुरानी पकड़ी का पेड़ वैसे ही अकड़ता है
दूर दूर फैली शोहरत थी मेरे गांव की बड़ी 
शायद इसी गुमां ने उसे रोक कर रखा है।

परिन्दों के आशियाने उसकी शाखों पे हैं
ये बोझ शायद उसे थक कर जाने न देता
गटठर लिए किसान सुस्ताते छांव में यहां
ये हौसला उसे विदा कर सूखने न देता हो

डरता हूं उसके साथ के सैकड़ो पीपल और नीम 
छोड़ कर चले गये वजूद अपना यादें ही बच रही
इसकी शाखें उन परिन्दों का आखरी सहारा हैं
पर मिट जायेगी इकदिन मेरे गांव की ये धरोहर।।



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रविवार, 8 दिसंबर 2024

'द्रोण' पुस्तक के अंश का संकलन, एक कविता के रूप मे


यह कविता मेरी पुस्तक द्रोण के अंश का संकलन है। यह संकलन मैंने बांग्लादेश मे हो रहे हिन्दू नरसंहार के विरुद्ध रोष वश लिखा है

पांडवों की थी पीड़ा दैनिक 
मरते थे दस सहस्त्र सैनिक
भीषण पर्वत कब हारेगा 
बढ़ कौन समय को मारेगा ।।1

गंभीर विषय ये देख हरि 
थे विवश बड़े ये सोच हरि 
न कहिं बची कोई युक्ति शेष 
यही चिंता हरि की थी विशेष।।2

विधि लेखन क्या गलत होगा
या इसमे परिवर्तन होगा 
सब जान मंद मुस्काते हैं 
हरि इसका आनंद उठाते हैं ।।7

अर्जुन लहराता क्यूँ गैरों पर
कायर बन फिरता अपनों पर
जब सारी हुयी युक्ति असफल
समझाने की हर आस विफल।।16

क्षण छोड़ सारथी की पदवी
और दिया सुदर्शन तान वही
रथ छोड़ा और अश्व छोड़े 
प्रभु भीष्म का वध करने दौड़े।।29

एक कवि कूटनीति ना समझाता हो पर उसे लेखन और दर्द, पुकार, चीत्कार और प्रेम ज्यादा समझ आता है 
#bangladesh 

द्रोण पुस्तक के चतुर्थ सर्ग से

ये धृष्ट जयद्रथ खड़ा हुआ  अपने दोषों से सजा हुआ  थी कुटिल चाल दिखलाई तेरे सुत की मौत करायी । सम्बंधी, नही क्षम्य है ये आगंतुक नह...