चंडाशोक से पियदर्शी बुद्धकृपा
बुद्ध पर न क्षणिक द्वंद हैं
बुद्ध तो निरद्वंद हैंउच्चस्थ मानदंड का
स्वर्णिम काल-खंड है।।01
विकराल लोल लोपसा
भयावही कराल काढ़
बढ़ी कलिंग लीलने
मनुष्यता को छीनने।।02
उन्मत चंडाशोक था
अखण्ड जिसका जोश था
शोणित नदी बहाने को
आतुर था शव बिछाने को।।03
अखण्ड जिसका जोश था
शोणित नदी बहाने को
आतुर था शव बिछाने को।।03
सहस्त्र सैन्य साजकर
पैदल, रथ,वाजि, गज
कलिंग दुर्ग आ डटा
विरोध पे ना पग हटा।।04
पैदल, रथ,वाजि, गज
कलिंग दुर्ग आ डटा
विरोध पे ना पग हटा।।04
धावा करेगा सूर्य पर
किले के शीर्ष तूर्य पर
कलिंग वीरदेश था
संकल्पों मे बंधा हुआ।।05
न एक पग पीछे हटे
सब सूरमा रण में डटे।।
सहस्त्रों शीश कट गयें
ताजी रक्त धार बह चली।।06
मानवता को धिक्कारती
चीखती पुत्कारती
दहाडे मार रो पडीं
जो नारियां थी बच रहीं।।07
इस दर्द को ना सह सका
अशोक वहां ना रूक सका
विक्षिप्त आप मानकर
धिक्कारने लगा वो स्वयं को।।08
अशोक वहां ना रूक सका
विक्षिप्त आप मानकर
धिक्कारने लगा वो स्वयं को।।08
यह क्या अनर्थ हो गया
विजय का हार व्यर्थ हो गया
अब अश्रुधार बह चली
हृदय मे घोर खलबली।।09
आत्मग्लानी मे न यूँ जलो
बुद्ध की शरण चलो
वही सभी को तारते
नयी दिशा संवारते।।10
मन मे ऐसा ठानकर
भावावेश जानकर
शरण मे आके गिर पड़ा
नि:शक्त न हो सका खड़ा।।11
यह क्या ही पाप हो गया
बचा हुआ भी खो गया।।
जब लुट चुका संसार है
क्या बच रहा जो तार दें।।12
वह बौद्ध भिक्षु बन गया
चंडाशोक अब "पियदर्शी" हो गया।।
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