शुक्रवार, 18 नवंबर 2022

महात्म्य :

रामाज्ञा वैद्य अब बुजुर्ग हो चले थे। इधर गांव मे आज भी कोसों दूर तक कोई भी उनकी तरह कारगर नही था। हालांकि आयु 90 वर्ष पार कर चुकी थी पर यम नियम के इतने पक्के थे कि दूसरे की पकायी चीज तक नही खाते थे। उनका गांव शहर से काफी दूर था और  आवागमन के लिए लोगो के पास सीमित साधन थे। वैसे तो गांव मे सब कुछ ठीक ही रहता था और जो थोड़ा बहुत ही कुछ होता तो वैद्य जी संभाल लेते थे। आधुनिक दौर मे भी उनका आयुर्वेदिक दवाएं गजब का कमाल करती थीं। 

इस दौर मे भी गांव अपनी जरूरतों के लिए खुद पर ही निर्भर रहता था। छोटी छोटी जरूरतों के लिए शहर का मुंह नही देखना पडता। 

वैद्य जी का बेटा हरीश अपनी डॉक्टरी की पढ़ाई पूरी कर शहर मे ही नौकरी करने लगा। पिता पुत्र के स्वभाव में बहुत फर्क था। दोनो के लिए धर्म और कर्तव्य का अर्थ भी अलग था। एक के लिए मानव सेवा ही धर्म तो दूसरे को सेवा के मोल से अधिक मतलब था। वैद्य जी ने खूब समझाया पैसा प्राथमिक नही होता लोकसेवा से अर्जित पुण्य का ही असल महत्व हैं पर बेटे पर आधुनिकता का रंग ऐसा चढ़ा था की वह पैसे को ही सब कुछ समझता था।

वैद्य जी ने भी इसे अपना भाग्यफल मान खुद को सहज बना लिया था। पत्नी के साथ अपने खेतों मे खूब मेहनत करते एवं प्रकृति के सानिध्य मे ही रहते। इससे मानो उनकी आयु जैसे स्थिर बनी हुई थी परन्तु इसके विपरीत पुत्र हरीश ज्यादा मेहनत करता और आय के चक्कर मे शहर के आपाधापी भरे जीवन में रहते हुए उसे नित्यप्रति रोगियों के साथ रहते रहते स्वयं भी थोड़े अस्वस्थ रहने लगा था। 


पर यह दौर पैसे कमाने का है और लक्ष्मी तो कर्मठ व्यक्ति की ही पकड़ मे आती हैं। यही सोचकर दिन रात एक कर दिया था। एक हास्पिटल भी खोल लिया था व्यस्तता मे हफ्ते मे एकाध बार माता पिता से बात भी हो जाती। 

हालांकि पुत्र प्रेम मे विह्वल वैद्य जी हां हूं बोल देते पर अवसर मिलते ही बेटे को नैतिकता का पाठ भी अवश्य पढा दिया करते थे। हरीश को पिता की बातें नागवार लगती शहर मे कितना नाम है मेरा और एक ये हैं जो मुझे अलग ही नसीहत दे रहे हैं। शायद पिता जी अपने जीवन मे कुछ खास नही कर पाये अतः उनको थोड़ा अपमान महसूस करते होंगे।

नियति ने माता पिता दो ऐसे रिश्ते बनाये है जो हमेशा अपनी संतान को खुद से आगे देखना चाहते हैं। परंतु जब ऐसा अभिमान पुत्र के मन मे पलने लगे तब उसका नष्ट होना भी तय हो जाता हैं। पग पग पर स्पर्धा से भरे इस जीवन मे कोई आपको स्वयं से आगे देखना चाहता है वह पिता होता है।

पुत्र के विशेष हठ पर वैद्य जी पत्नी समेत कुछ दिनो के लिए शहर आये थे। बेटे ने बड़ी चालाकी से अपना वैभव दिखाने बुलाया था। 

दुपहर के समय अस्पताल का एक चक्कर लगाते वैद्य जी एक औरत और एक लडके से मिले जिन्हे डाक्टर के जवाब ने बड़ा परेशान कर रखा था। वह पुरूष एक असाध्य रोग से पीड़ित था और मृत्यु के काफी नजदीक था।



वैद्य जी ने उनकी बातें सुनी उसकी नब्ज पकड़ी और जब कुछ मर्ज समझ मे आया तो बोले बाबू आज तो मै घर जा रहा हूं आपको इलाज चाहिए तो मेरे साथ वहां चलो। मृत्यु के निकट व्यक्ति को जब कोई और उपाय न सूझता देख वह उनके साथ हो लिया। परिवार भी जीवन की आस मिलती देख अपनी सहमति दे देता हैं।

सश्रम जीवनयापन और वैद्य जी की औषधियों का प्रयोग करते हुए बरसों बीत चुके थे रोगी अब स्वस्थ हो चला था। गांव की प्राकृतिक आबो हवा और स्वस्थ खुराक से हृष्ट-पुष्ट भी हो गया था।

अबकी बार जब वैद्य जी हरीश से मिलने आये तो उस व्यक्ति को भी अपने साथ ले आये। उसका परिवार इस बात से बहुत खुश था। जबकि हरीश चुपचाप खड़ा अपने पिता के ज्ञान और आयुर्वेद के महात्म्य को अब समझ पाया था।।

#Ssps96

शशिवेन्द्र "शशि"


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