पलट कर बोल भी तो सकता था मै
पर चुप रहकर मान लेना बेहतर था
हाल-ए-दिल खोल भी सकता था मैं
पर मौन होकर आंसू पीना बेहतर था।।01
उन्हे अंदाजा था मेरे शर्माने पन का
जिससे वो थोड़ी घबरायी सी रहती थी
कहते कहते कभी रूकती फिर कहती
डरी थी सहमी सी कहती फिर डरती थी।।02
इक सफ़र:- जिसमे किधर गया हूं मैं
सच तो उनका वह डर हुआ ही आखिर
बनते बनते सब बिखर ही गया आखिर
रहा शेष ही क्या उस कारवां मे आखिर
चिता मे शेष बची रही राख हो आखिर।।03
कमबख्त इस डर ने ही बिगाड़ा काम सारा
इसने ही रूसवां कराया था नाम हमारा
जितना ही इससे बचते थे उतना ये डराता
नामुराद गाहे बगाहे खुद ही चला आता।।04
कांपते हाथों से इकबार थाम लिया मैने
रोका उनने भी नही था नजरें नीचे कर के
पसीने की बूंदे हिलते होठ पर आवाज नही
सुख मधुर संगीत का और कोई साज नही।।05
बंद आंखे आज भी उस सुख को देखती हैं
जिन आंखो को समझने का हुनर था अपना
धडल्ले निकलते है अब उस गली से कूंचे से
कभी जिनकी महक से था वास्ता अपना।।06
ये जिन्दगी गुजरती ट्रेन के बाद का स्टेशन
कोई और अब इंतजार करता नही मिलता
कांच का ही बना होगा इंसानी दिल शायद
जख्म-ए-दिल को कोई रफूगर नही सिलता।।07
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