शुक्रवार, 12 मई 2023

प्रेमचंद:- युगदृष्टा लेखक


बनारस जिले के सुदूर गांव के खेतों मे पककर तैयार हुई अपने डंठल से लटकती गेहूं की बाली जब हवा के हल्के झोंके पर हिलती है तो उसकी खनखनाहट कथा सम्राट प्रेमचंद की मधुर याद को मिश्रित करती हुई दूर तक जाती हैं मानो सुन्दर कथाओं में निज वर्णन किये जाने हेतु उस अद्भुत कथाकार का आभार प्रकट कर रही हों।

सुबह खेत की मेड़ों पर पड़ी ओस जब नंगे पैरों मे छोटे छोटे तिनके संग लटपटाती हैं, दरवाजे पर बंधी पछाही गाय आज भी जब रंभाती है या बाबूजी की पीढ़ी का कोई बड़ा बुजुर्ग लकड़ी वाली पुरानी कुर्सी पर बैठकर अपनी पढ़ाई के समय की बातें साझा करता है तो इस वार्ता मे प्रेमचंद की प्रासंगिकता स्वयं परिलक्षित होने लगती हैं।


[1] प्रेमचंद महज एक कथाकार नही थे वरन् आधुनिक हिन्दी जगत की एक संपूर्ण प्रेरक प्रणाली थे। जिनके अलग अलग रूप उनकी रचनाओं मे प्रदर्शित होते रहते हैं।लेखक के तौर पर वह बड़ी संजीदगी से समाज मे व्याप्त कुरीतियों पर प्रहार करते थे। उनकी रचनायें पढ़कर नजरअंदाज कर पाना किंचित भी संभव नही था। जिस प्रकार उत्तम चरित्र के लोग उन्हे यूं पढते जैसे उनकी ही प्रशंसा की जा रही है तो ठीक इसके विपरीत कामी खल और दोषी उन्हे पढ़कर लजाते भी हैं जैसे अगली कृति उनको ही धिक्कारने के लिए लिखी गई हो।

[2] एक युगदृष्टा के तौर पर आने वाले समय के गुण दोषों का भी उनको खूब ज्ञान था। जैसे गोदान उपन्यास में हुए दो प्रेम विवाहों में गोबर और झुनिया तथा मातादीन और सिलिया अलग-अलग जाति के जरूर है। जहां मातादीन ब्राह्मण है जो तथाकथित जाति व्यवस्था में ऊपर जबकि सिलिया चमार वर्ण व्यवस्था में नीचे है। उस दौर में ऐसे उदाहरण मजबूत और क्रांतिकारी लेखन की झलक प्रस्तुत करते है। ऐसे आंदोलनकारी झलक को आज के समाज में भी देखा जा सकता है।

[3] आलोचक:- व्यंग्य उनका सबसे बड़ा और अचूक हथियार था जिस प्रकार एक लुहार लोहे को पिघलाकर उसपर हथौड़े की चोट करता है ठीक वैसे ही समाज की बेढंगे रीति रिवाज़ पर प्रेमचंद का प्रहार चलता रहता था

पंच परमेश्वर की बूढी खाला की दुर्दशा का वर्णन करते हुए

"जब तक दानपत्र की रजिस्ट्री न हुई थी, तब तक खालाजान का खूब आदर-सत्कार किया गया; उन्हें खूब स्वादिष्ट पदार्थ खिलाये गये। हलवे-पुलाव की वर्षा- सी की गयी; पर रजिस्ट्री की मोहर ने इन खातिरदारियों पर भी मानों मुहर लगा दी। जुम्मन की पत्नी करीमन रोटियों के साथ कड़वी बातों के कुछ तेज, तीखे सालन भी देने लगी। जुम्मन शेख भी निठुर हो गये। अब बेचारी खालाजान को प्राय: नित्य ही ऐसी बातें सुननी पड़ती थी।

बुढ़िया न जाने कब तक जियेगी। दो-तीन बीघे ऊसर क्या दे दिया, मानों मोल ले लिया है ! बघारी दाल के बिना रोटियॉँ नहीं उतरतीं ! जितना रुपया इसके पेट में झोंक चुके, उतने से तो अब तक गॉँव मोल ले लेते"

[4] एक शिक्षक के तौर पर प्रस्तुत उनकी रचनाये न्याय नीति और संबंधो के स्वस्थ निर्वहन की वकालत करती हैं। "पंच परमेश्वर" के अपमानित जुम्मन शेख जब पंच चुने जाते हैं तो

"अपने उत्तरदायित्व का ज्ञान बहुधा हमारे संकुचित व्यवहारों का सुधारक होता है। जब हम राह भूल कर भटकने लगते हैं तब यही ज्ञान हमारा विश्वसनीय पथ-प्रदर्शक बन जाता है।

पत्र-संपादक अपनी शांति कुटी में बैठा हुआ कितनी धृष्टता और स्वतंत्रता के साथ अपनी प्रबल लेखनी से मंत्रिमंडल पर आक्रमण करता है: परंतु ऐसे अवसर आते हैं, जब वह स्वयं मंत्रिमंडल में सम्मिलित होता है। मंडल के भवन में पग धरते ही उसकी लेखनी कितनी मर्मज्ञ, कितनी विचारशील, कितनी न्याय-परायण हो जाती है। इसका कारण उत्तर-दायित्व का ज्ञान है। नवयुवक युवावस्था में कितना उद्दंड रहता है। माता-पिता उसकी ओर से कितने चितिति रहते है! वे उसे कुल-कलंक समझते हैंपरन्तु थौड़ी हीी समय में परिवार का बौझ सिर पर पड़ते ही वह अव्यवस्थित-चित्त उन्मत्त युवक कितना धैर्यशील, कैसा शांतचित्त हो जाता है, यह भी उत्तरदायित्व के ज्ञान का फल  है"

[5] परिवारिक व्यक्ति के तौर पर ऐसी गहन विचारशीलता जो चार वर्ष के हामिद से ऐसा घना जिम्मेदारी का दृष्टांत प्रस्तुत कराती है जो बड़े सख्त दिल वालों की भी आंखों में आंसू ला दे

"अमीना ने छाती पीट ली. यह कैसा बेसमझ लड़का है कि दोपहर हुआ, कुछ खाया न पिया. लाया क्या, चिमटा!

सारे मेले में तुझे और कोई चीज़ न मिली, जो यह लोहे का चिमटा उठा लाया ?

हामिद ने अपराधी भाव से कहा,‘तुम्हारी उंगलियां तवे से जल जाती थीं, इसलिए मैंने इसे लिया.’

बुढ़िया का क्रोध तुरंत स्नेह में बदल गया, और स्नेह भी वह नहीं, जो प्रगल्भ होता है और अपनी सारी कसक शब्दों में बिखेर देता है. यह मूक स्नेह था, ख़ूब ठोस, रस और स्वाद से भरा हुआ. बच्चे में कितना त्याग, कितना ‍सद्‌भाव और कितना विवेक है! दूसरों को खिलौने लेते और मिठाई खाते देखकर इसका मन कितना ललचाया होगा? इतना जब्त इससे हुआ कैसे? वहां भी इसे अपनी बुढ़िया दादी की याद बनी रही. अमीना का मन गद्‌गद्‌ हो गया"

[6] उनके साहित्य में मानवीय पक्ष बड़ा ही सबल है। इसमें मानवीय संवेदनाओ, मूल्यों और जुड़ाव का ऐसा ताना बाना मिलता है जो बरबस ही पाठक को आनंद के समुद्र मे गोते लगाने के लिए स्वतंत्र करता है। कभी भावुकता का चरमोत्कर्ष तो कभी दुख का पारावार पर यथार्थ और कल्पना का संतुलन इतना जबरदस्त की पाठक देर तक उसकी गूढ़ता का मौज लेता रहे। गांभीर्यता ऐसी की पात्र के साथ पाठक भी अवाक् की यह क्या ही हो गया। "मंत्र" के भगत का वर्णन करते हुए

"बूढ़ा कई मिनट तक मूर्ति की भांति निश्चल खड़ा रहा. संसार में ऐसे मनुष्य भी होते हैं, जो अपने आमोद-प्रमोद के आगे किसी की जान की भी परवाह नहीं करते, शायद इसका उसे अब भी विश्वास न आता था. सभ्य संसार इतना निर्मम, इतना कठोर है, इसका ऐसा मर्मभेदी अनुभव अब तक न हुआ था. वह उन पुराने जमाने की जीवों में था, जो लगी हुई आग को बुझाने, मुर्दे को कंधा देने, किसी के छप्पर को उठाने और किसी कलह को शांत करने के लिए सदैव तैयार रहते थे. जब तक बूढ़े को मोटर दिखाई दी, वह खड़ा टकटकी लगाए उस ओर ताकता रहा. शायद उसे अब भी डॉक्टर साहब के लौट आने की आशा थी"

[7] गृहस्थ के रूप में एक संन्यासी की भांति प्रेमचंद ने अपने व्यक्तिगत जीवन को सदैव मूल्यपरक श्रेष्ठता के साथ जिया। लगातार आने वाली बाधाओं के बावजूद वह कभी भी अपने पथ से डिगे नही बल्कि एकनिष्ठ हो लेखन मे लगे रहे। दायित्वबोध एवं अकिंचन भाव का उत्कृष्ट समन्वय उनके लेखों मे झलकता रहता हैं 

"मंत्र" कहानी का एक प्रसंग हैं

"भगत के लिए यह जीवन में पहला अवसर था कि ऐसा समाचार पा कर वह बैठा रह गया हो. अस्सी वर्ष के जीवन में ऐसा कभी न हुआ था कि सांप की ख़बर पाकर वह दौड़ न गया हो. माघ-पूस की अंधेरी रात, चैत-बैसाख की धूप और लू, सावन-भादों की चढ़ी हुई नदी और नाले, किसी की उसने कभी परवाह न की. वह तुरन्त घर से निकल पड़ता था—नि:स्वार्थ, निष्काम! लेन-देन का विचार कभी दिल में आया नहीं. यह सा काम ही न था. जान का मूल्य कौन दे सकता है? यह एक पुण्य-कार्य था. सैकड़ों निराशों को उसके मंत्रों ने जीवन-दान दे दिया था"

[8] तत्कालीन स्त्री विमर्श में औपनिवेशिक काल के भारतीय समाज मे स्त्रियों की दशा चिंतनीय थी। प्रेमचंद के प्रेरक लेखन से स्त्री विमर्श को व्यापक स्तर पर एक नई दिशा प्राप्त हुई। दहेज की कुरीति पर प्रहार करते अपने उपन्यास "निर्मला" मे उन्होने एक पिता की चिंताओ पर लिखा 

"बाबू उदयभानुलाल थे तो वकील, पर संचय करना न जानते थे. दहेज उनके सामने कठिन समस्या थी. इसलिए जब वर के पिता ने स्वयं कह दिया कि मुझे दहेज की परवाह नहीं, तो मानों उन्हें आँखें मिल गई. डरते थे, न जाने किस-किस के सामने हाथ फैलाना पड़े, दो-तीन महाजनों को ठीक कर रखा था. उनका अनुमान था कि हाथ रोकने पर भी बीस हजार से कम खर्च न होंगे. यह आश्वासन पाकर वे ख़ुशी के मारे फूले न समाये"

[9] प्रेमचंद का दलित विमर्श:- उनके साहित्य मे समाज के निचले तबके शोषित वंचित वर्ग के लिए विशेष स्थान दिखता है। प्रत्येक पीडित और कमज़ोर के प्रति स्नेह उनके लेखन प्रस्फुटित होता है जबकि शोषण-दमन के विरूद्ध क्रोध कलम के ही जरिए परंतु बहुत ही तन्मयता के साथ प्रवाहित होती है और इसका प्रमुख माध्यम है व्यंग्य, जैसे गोदान मे कर्ज और शोषण के जाल मे फंसे एक किसान के संघर्ष और उसके अंत की कहानी  

"पंडित जी भोजन कर रहे थे, पर कौर मुँह में फँसा हुआ जान पड़ता था। आखिर बिना दिल का बोझ हल्का किए, भोजन करना कठिन हो गया। बोले - अगर रुपए न दिए, तो ऐसी खबर लूँगा कि याद करेंगे। उनकी चोटी मेरे हाथ में है। गाँव के लोग झूठी खबर नहीं दे सकते। सच्ची खबर देते तो उनकी जान निकलती है, झूठी खबर क्या देंगे"


इस प्रकार प्रेमचंद समग्र रूप से पीडित और उत्पीड़क दोनो ही वर्ग को साधते हुए एक आदर्श समाज का दृश्य प्रस्तुत करते हैं। उनकी रचनाओं की प्रासंगिकता आरंभ से ही उच्चस्तरीय है जबकि आधुनिक दौर मे वह दिनों दिन सत्य होती प्रतीत हो रही हैं।

शशिवेन्द्र "शशि"

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द्रोण पुस्तक के चतुर्थ सर्ग से

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